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षष्ठ अध्याय
४५५
अथाशरणं प्रणिधत्ते
तत्तत्कर्मग्लपितवपुषां लब्धवल्लिप्सितार्थ,
__ मन्वानानां प्रसममसुवत्प्रोद्यतं भक्तुमाशाम् । यद्वद्वायं त्रिजगति नृणां नैव केनापि दैवं,
तद्वन्मृत्युग्रेसनरसिकस्तद् वृथा त्राणदैन्यम् ॥६०॥ कर्म-कृष्यादि । प्रोद्यतं-अभिमुखेनोद्युक्तम् ॥६०॥ अथ कालस्य चक्रीन्द्राणामप्यशक्यप्रतीकारत्वचिन्तनेन सर्वत्र बहिर्वस्तुनि निर्मोहतामालम्बयतिसम्राजां पश्यतामप्यभिनयति न कि स्वं यमश्चण्डिमानं,
शक्राः सीदन्ति दीर्घ व न दयितवधदीर्घनिद्रामनस्ये। आःकालव्यालदंष्ट्रां प्रकटतरतपोविक्रमा योगिनोऽपि,
__व्याक्रोष्टुन क्रमन्ते तदिह बहिरहो यत् किमप्यस्तु कि मे ॥६॥ अब अशरण अनुप्रेक्षाका विचार करते हैं
कृषि आदि उन-उन कार्योंने जिनके शरीरको सत्त्वहीन बना डाला है, और जो इच्छित पदार्थको ऐसा मानते हैं मानो वह हमारे हाथमें ही है, ऐसे मनुष्योंकी आशाको प्राणोंकी तरह ही बलपूर्वक नष्ट करने के लिए तत्पर दैव जैसे तीनों लोकोंमें किसीके भी द्वारा नहीं रोका जाता, उसी तरह प्राणोंको हरनेकी प्रेमी मृत्युको भी कोई नहीं रोक सकता। अतः शरणके लिए दीनता प्रकट करना व्यर्थ ही है ॥६०॥
विशेषार्थ-संसारमें मनुष्य भविष्यके लिए अनेक आशाएँ करता है और उनकी प्राप्तिके लिए अनेक देवी-देवताओंकी आराधना भी करता है और ऐसा मान बैठता है कि मेरी आशा पूर्ण होनेवाली है। किन्तु पूर्वकृत कर्मोंका उदय उसकी आशाओंपर पानी फेर देता है। कहा है-पहले किये हुए अशुभ कर्म अपना समय आनेपर जब उदीरणाको प्राप्त होते हैं तो वे किसी चेतन इन्द्रादिके द्वारा और अचेतन मन्त्रादिके द्वारा या दोनोंके ही द्वारा रोके नहीं जा सकते। इसी तरह जब मृत्यु मनुष्य के प्राणोंको ग्रसनेके लिए तत्पर होती है तो उसे भी कोई नहीं रोक सकता। ऐसी स्थिति में जब दैव और मृत्यु दोनों ही को शक्य नहीं है तब रक्षाके लिए दूसरोंके सामने गिड़गिड़ाना या अपनेको अशरण मानकर शोक आदि करना व्यर्थ ही है। सारांश यह है कि विवेकीजनोंको ऐसे समयमें धैर्यका ही अवलम्बन लेना उचित है ॥६०॥ . आगे कहते हैं कि चक्रवर्ती, इन्द्र, और योगीन्द्र भी कालकी गतिको टालनेमें असमर्थ हैं ऐसा विचारकर मुमुक्षु सर्वत्र बाह्य वस्तुओंमें मोह नहीं करता
__समस्त पृथ्वीके स्वामी चक्रवर्ती राजाओंके देखते हुए भी क्या यमराज अपनी प्रचण्डताको व्यक्त नहीं करता ? तथा क्या इन्द्र चिरकालसे चले आते हुए प्रिय पत्नीके मरणके हःखसे दुःखी नहीं होते ? अधिक क्या कहा जाये, जिनका तपका प्रभाव जगत्में विख्यात है वे तपस्वी योगी भी कालरूपी सपं या व्याघ्रकी दाढ़को नष्ट करने में समर्थे नहीं हैं। इसलिए इन बाह्य वस्तुओंमें जो कुछ भी होओ, उससे मेरा कुछ भी नहीं बिगड़ता ॥६१॥
रोकना
१. कर्माण्यदीर्यमाणानि स्वकीय समये सति ।
प्रतिषेधुं न शक्यन्ते नक्षत्राणीव केनचित् ।।
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