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________________ ६ ९ ४४६ १५ धर्मामृत (अनगार ) अथ मनोविक्षेपकारणकरण गोचरा पसरणपरं गुर्वादिकमभिनन्दति-चित्तविक्षेपणोक्षार्थान् विक्षिपन् द्रव्यभावतः । विश्वराट् सोऽयमित्यायैर्बहुमन्येत शिष्ट राट् ॥४७॥ विश्वाराट् - - जगन्नाथः । 'विश्वस्य वसुराटो:' इति दीर्घः ॥ ४७ ॥ अथ उत्तममध्यमाधमभेदात्त्रिप्रकारं प्राणिपरिहाररूपमपहृतसंयमं प्रपञ्चयन्नाह - बाह्यं साधनमाश्रितो व्यसुवसत्यन्नादिमात्रं स्वसादभूतज्ञानमुखस्तदभ्युपसृतान् जन्तून्यतिः पालयन् । स्वं व्यवत्यं ततः सतां नमसितः स्यात् तानुपायेन तु स्वात्मार्जन् मृदुना प्रियः प्रतिलिखन्नप्यादृतस्तादृशा ॥४८॥ १२ व्यसु — प्रासुकम् । स्वसाद्भूतज्ञानमुखः - स्वाधीनज्ञानचरणकरणः । तदभ्युपसृतान् - प्रासुकवसत्यादावुपनिपतितान् । व्यावर्त्य - तद्वस्तुत्यागेन वियोगोपघातादिचिन्तापरिहारेण वा प्रच्याव्य । ततः - तेभ्यो जन्तुभ्यः सोऽयमुत्तमः । स्वात् - आत्मदेहतः । मार्जन् - शोधयन् । प्रियः - इष्टः । सतामित्येव ॥४८॥ अथापहृतसंयमस्फारीकरणाय शुद्धयष्टकमुपदिशति - भिक्षेर्याशयनासन विनयव्युत्सर्गवाङ्मनस्तनुषु । तन्वन्नष्टसु शुद्धि यति रपहृत संयमं प्रथयेत् ॥४९॥ बारम्बार सेवन किये गये विषयोंको त्यागकर उनसे भिन्न अनभ्यस्त अर्थोंवाले स्थानको प्राप्त करना चाहिए ||४६|| को विक्षिप्त करनेवाले इन्द्रिय विषयोंको दूर करने में तत्पर गुरु आदिका अभिनन्दन करते हैं— राग-द्वेष आदिको उत्पन्न करके मनको व्याकुल करनेवाले इन्द्रिय विषयोंको द्रव्य और भावरूपसे त्याग करनेवाले शिष्टराट् - तत्त्वार्थके श्रवण और ग्रहणसे गुणोंको प्राप्त शिष्ट पुरुषोंके राजा, उत्तम पुरुषोंके द्वारा 'यह विश्व में शोभायमान विश्वाराट् है' इस प्रकारसे बहुत माने जाते हैं ||४७॥ विशेषार्थ - बाह्य विषयोंका त्याग द्रव्य त्याग है और अन्तर्वर्ती विषय सम्बन्धी विकल्पोंका त्याग भाव त्याग है । दोनों प्रकारसे त्याग करनेवाले विश्वपूज्य होते हैं ॥४७॥ आगे उत्तम, मध्यम, जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके प्राणीपरिहाररूप अपहृत संयमका कथन करते हैं— 1 स्वाधीन ज्ञान चारित्रका पालक मुनि उसके बाह्य साधन मात्र प्रासुक वसति, प्रासुक अन्न आदिको ही स्वीकार करता है । उनमें यदि कोई जीव-जन्तु आ जाता है तो वहाँ से स्वयं हटकर जीवोंकी रक्षा करता है । वह यति साधुओंके द्वारा पूजित होता है । यह उत्कृष्ट प्राणिसंयम है । और उन जन्तुओंको कोमल पिच्छिकासे अपने शरीर आदिसे दूर करनेवाला साधु सज्जनोंका प्रिय होता है । यह मध्यम प्राणिसंयम है । तथा मृदु पीछीके अभाव में उसीके समान कोमल वस्त्र आदिसे जीवोंकी प्रतिलेखना करनेवाला साधु सज्जनों को आदरणीय होता है । यह जघन्य प्राणिसंयम है ||४८ || अपहृत संयमको बढ़ानेके लिए आठ शुद्धियों का उपदेश करते हैं - संयमके पालनके लिए तत्पर साधुको भिक्षा, ईर्ष्या, शयन, आसन, विनय, व्युत्सग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.arg
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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