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________________ षष्ठ अध्याय स्पष्टम् ॥४४॥ अथैवमिन्द्रियपरिहारलक्षणमपहतसंयममुत्तमप्रकारेण भावनाविषयीकृत्येदानीं तमेव मध्यमजघन्यप्रकाराभ्यां भावयितुमुपक्रमते साम्यायाक्षजयं प्रतिश्रुतवतो मेऽमी तदर्थाः सुखं लिप्सोवुःखविभीलुकस्य सुचिराभ्यस्ता रतिद्वेषयोः। व्युत्थानाय खलु स्युरित्यखिलशस्तानुत्सृजेद दूरत स्तद्विच्छेदननिर्दयानथ भजेत्साधून्परार्थोद्यतान् ॥४५॥ प्रतिश्रुतवतः-अङ्गीकृतवतः । व्युत्थानाय-झगित्युद्बोधाय ॥४५।। अथ स्वयं विषयदूरीकरणलक्षणं मध्यममपहृतसंयमभेदं प्रत्युद्यमयति मोहाज्जगत्युपेक्षेऽपि छेत्तु मिष्टेतराशयम् । तथाभ्यस्तार्थमुज्झित्वा तदन्यार्थं पदं व्रजेत् ॥४६॥ इष्टतराशयं-इष्टानिष्टवासनाम् । तथाभ्यस्तार्थ-इष्टानिष्टतया पुनः पुनः सेवितविषयम् । पदं- १२ वसत्यादिकमसंयमस्थानं वा ॥४६॥ बलपूर्वक अभिभूत हुआ अर्थात् वैभाविक भावको प्राप्त हुआ यह स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे स्पष्ट आत्मा जन्म-जन्मान्तरमें भी ज्ञान चेतनाको प्राप्त नहीं करता॥४४॥ विशेषार्थ-लौकिक विषसे अभिभूत व्यक्ति तो उसी भरमें होशमें नहीं आता । किन्तु विषय रूपी विषसे अभिभूत चेतन अनन्त भवोंमें भी नहीं चेतता । यही इसकी अलौकिकता है। अतः ज्ञानचेतनारूपी अमृतको पीनेके इच्छुक जनोंको विषयसेवनसे विरत ही होना चाहिए ।।४४॥ इस प्रकार इन्द्रिय परिहाररूप अपहृत संयमको उत्तम रीतिसे भावनाका विषय बनाकर अब उसीको मध्यम और जघन्य प्रकारोंसे भावनाका विषय बनानेका उपक्रम करते हैं___मैं दुःखोंसे विशेष रूपसे भयभीत हूँ और सुख चाहता हूँ। इसीलिए मैंने साम्यभावरूप उपेक्षा संयमकी सिद्धिके लिए इन्द्रियोंको जीतने की प्रतिज्ञा की है। ये इन्द्रियोंके विषय अनादिकालसे मेरे सुपरिचित हैं। मैंने इन्हें बहुत भोगा है। ये तत्काल राग-द्वेषको उत्पन्न करते हैं। इसलिए इन समस्त विषयोंको दूरसे ही छोड़ देना चाहिए। यह मध्यम संयम भावना है । अथवा जो साधु मध्यम संयम भावनामें असमर्थ है, उसे परोपकारके लिए तत्पर और उन विषयोंको दूर करने में कठोर साधुओंकी सेवा करनी चाहिए। यह जघन्य इन्द्रियसंयम भावना है ।।४५।। विशेषार्थ-मध्यम प्रकारकी विषय निवृत्तिमें विषयोंको बाह्य रूपसे अपनेसे दूर कर दिया जाता है, उत्तम प्रकारकी तरह अन्तवृत्तिसे विषयोंका त्याग नहीं किया जाता । और जघन्यमें आचार्यादिके द्वारा विषयोंको दूर किया जाता है ॥४५|| - आगे स्वयं विषयको दूर करने रूप मध्यम अपहृत संयमका पालन करनेके लिए साधुओंको प्रेरित करते हैं _ यह समस्त चराचर जगत् वास्तव में उपेक्षणीय ही है। फिर भी अज्ञानसे इसमें इष्ट और अनिष्टकी वासना होती है । इस वासनाको नष्ट करनेके लिए इष्ट और अनिष्ट रूपसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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