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________________ ३ धर्मामृत ( अनगार) अथोत्तमक्षमादिभिः क्रोधादीन् जितवतः शुक्लध्यानबलेन जीवन्मुक्तिसुलभत्वमुपदिशतिसंख्यातादिभवान्तराब्ददलपक्षान्तर्मुहर्ताशयान् दृग्देशवतवृत्तसाम्यमथनान् हास्यादिसैन्यानुगान् । यः क्रोधादिरिपून रुणद्धि चतुरोऽप्युद्घक्षमाद्यायुधै ोगक्षेमयुतेन तेन सकलश्रीभूयमीषल्लभम् ॥३४॥ संख्यातादीनि-संख्यातान्यसंख्यातान्यनन्तानि च । अब्ददलं-षण्मासम् । आशयः-वासना । उक्तं च 'अंतोमुहत्तपक्खं छम्मासं संखऽसंखणंतभवं । संजलणमादियाणं वासणकालो दुणियमेण ॥ [ गो. कर्म., गा. ४६ ] दृगित्यादि-यथाक्रममनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनसंज्ञान् । उक्तं च 'पढमो दंसणघायी विदिओ तह देसविरदिघाई य। तदिओ संयमघाई चउत्थो जहखादघाई य ॥ [प्रा. पञ्च., गा. १।११५ ] आगे कहते हैं कि उत्तम क्षमा आदिके द्वारा क्रोध आदिको जीतनेवाले साधुके लिए शुक्ल ध्यानके द्वारा जीवन्मुक्ति प्राप्त करना सुलभ है सम्यग्दर्शनके घातक अनन्तानुबन्धी क्रोध आदिका वासनाकाल संख्यात, असंख्यात और अनन्त भव है । देश चारित्रको घातनेवाले अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदिका वासनाकाल छह मास है । सकल चारित्रके घातक प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदिका वासनाकाल एक पक्ष है और यथाख्यात चारित्रके घातक संज्वलन क्रोध आदिका वासनाकाल अन्तर्मुहूर्त है। जो उत्तम क्षमा आदि आयुधोंके द्वारा हास्य आदि सेनाके साथ चारों ही क्रोध आदि शत्रुओंको रोकता है, क्षपक श्रेणी में शुक्ल ध्यानके साथ एक रूप हुए अर्थात् एकत्ववितकवीचार नामक शुक्ल ध्यानमें आरूढ़ हुए उस साधुको सकलश्री अर्थात् सशरीर अनन्तज्ञानादि चतुष्टय सहित समवसरण आदि विभूति बिना श्रमके प्राप्त हो जाती है ॥३४|| विशेषार्थ-उक्त चारों कषाय सम्यक्त्व आदिकी घातक हैं। कहा है-'प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शनकी घातक है। दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशचारित्रकी घातक है। तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय सकल चारित्रकी घातक है और चौथी संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्रकी घातक है।' तथा इन कषायोंका वासनाकाल इस प्रकार कहा है-'संज्वलन आदि कषायोंका वासनाकाल नियमसे अन्तर्मुहूर्त, एक पक्ष, छह मास और संख्यात, असंख्यात, अनन्तभव होता है।' .. इन कषायों रूपी शत्रुओंको वही जीत सकता है जो योगक्षेमसे युक्त होता है। योगका अर्थ होता है समाधि । यहाँ शुक्लध्यान लेना चाहिए क्योंकि वह कषायोंके निरोधका अविनाभावी है । कहा है-कषाय रूप रजके क्षयसे या उपशमसे शुचिगुणसे युक्त होनेसे शुक्लध्यान कहाता है। __और क्षेमका अर्थ होता है घात न होना। क्षपक श्रेणीमें होनेवाला शुक्लध्यान मध्यमें नष्ट नहीं होता। इस योगक्षेमसे जो युक्त होता है अर्थात् शुक्लध्यानरूप परिणत होता है, दूसरे शब्दों में एकत्व वितर्कवीचार नामक शुक्लध्यानमें लीन होता है। सोमदेव सूरिने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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