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षष्ठ अध्याय
४३३ जलं यष्ट्यादिना मध्ये छिद्यमानं स्वयमेव नि:संबन्धं मिलति तथा संज्वलनेन विघटितं चित्तमित्युपमानार्थः । एवमुत्तरेष्वपि यथास्वमसौ व्याख्येयः । वंशाङ्घ्रिः - वेणुमूलम् ॥३२॥ कृमिरागः - कृमित्यक्तरक्ताहारः । तद्रतोर्णातन्तु निष्पादितो हि कम्बलो दग्धावस्थोऽपि न विरज्येत । चक्रकायमलो - घर्णककिट्टिका देहमलश्च । रजनी - हरिद्रा । रागः - रञ्जनपर्यायः । एषः कृम्यादिभिः प्रत्येकमभिसंबध्यते । अवस्थाभिः - सर्वोत्कृष्ट - हीन-हीनतर-हीनतमोदयरूपाभिरनन्तानुबन्ध्यादिशक्तिभिः ||३३||
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जो क्रमसे नरक गति, तियचगति, मनुष्यगति और देवगतिमें जन्म कराता है । बाँसकी जड़, मेढे सींग, बैलका मूतना और चमरीके केशोंके समान अनन्तानुबन्धी आदि माया होती है
क्रमसे नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति में उत्पन्न कराती है। क्रमिराग, चकेका मल, शरीरका मल और हल्दीके रंगके समान क्रमसे अनन्तानुबन्धी आदि लोभ होता है जो क्रमसे नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगतिमें जन्म कराता है ॥३२-३३॥
विशेषार्थ - प्रत्येक कषायकी सर्वोत्कृष्ट अवस्थाको अनन्तानुबन्धी, उससे हीनको अप्रत्याख्यानावरण, उससे भी हीनको प्रत्याख्यानावरण और सबसे हीन अवस्थाको संज्वलन कहते हैं । यों हीनादि अवस्था अनन्तानुबन्धी आदिमें भी होती है क्योंकि प्रत्येक कषायके उदयस्थान असंख्यात होते हैं । फिर भी ये हीनादि अवस्था जो अप्रत्याख्यानावरण आदि नाम पाती है उससे भिन्न है । सामान्यतया मिथ्यात्व सहभावी कषायको अनन्तानुबन्धी कहते हैं । उसके उदयमें सम्यग्दर्शन नहीं होता । इसी तरह अणुविरति की रोधक कषायको अप्रत्याख्यानावरण, महाविरतिको रोकनेवाली कषायको प्रत्याख्यानावरण और यथाख्यात चारित्रकी घातक कषायको संज्वलन कहते हैं । मिध्यादृष्टिके इन चारों कषायों का उदय होता है | सम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धीके बिना तीन ही प्रकारकी कषायोंका उदय होता है । इसी प्रकार आगे भी जानना । ऊपर प्रत्येक कषायको उपमाके द्वारा समझाया है । जैसे— पत्थर टूट जानेपर सैकड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जुड़ता, उसी तरह अनन्तानुबन्धी क्रोधसे टूटा हुआ मन भी नहीं मिलता। जैसे पृथ्वी फट जानेपर महान् प्रयत्न करनेसे पुनः मिल जाती है उसी तरह अप्रत्याख्यान कषायसे टूटा हुआ मन भी बहुत प्रयत्न करनेसे मिलता है । जैसे धूल में रेखा खींचने से वह दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है और थोड़ा-सा भी प्रयत्न करने से मिल जाती है, उसी तरह प्रत्याख्यान कषायसे विघटित मन भी मिल जाता है । जैसे जलमें लकड़ी से रेखा खींचते ही वह स्वयं ही तत्काल मिल जाती है, उसी तरह संज्वलन कषाय से विघटित चित्त भी मिल जाता है । इसी तरह शेष उपमानोंका अर्थ भी जानना । ऊपर जो अनन्तानुबन्धी कषायसे नरक गति, अप्रत्याख्यान से तिर्यंच गतिमें जाने की बात कही है यह स्थूल कथन है । क्योंकि अनन्तानुबन्धीका उदयवाला द्रव्य लिंगी निर्ग्रन्थ मरकर ग्रैवेयक में देव होता है । इसी तरह अनन्तानुबन्धीके उदयवाला नारकी और देव मरकर मनुष्य या तिर्यंच ही होता है । प्रथम नम्बरकी कषायमें केवल कृष्ण लेश्या ही होती है, दूसरे नम्बर की कषाय में कृष्ण से लेकर क्रमशः बढ़ते हुए छह लेश्याएँ होती हैं। तीन नम्बरकी कषायमें छहों लेश्यासे लेकर क्रमशः बढ़ते हुए शुक्ल लेश्या होती है । और चतुर्थ नम्बरकी कषाय में केवल शुक्ल लेश्या ही होती है और लेश्याके अनुसार ही आयुका बन्ध होता है ।। ३२-३३||
१. घ्राणकि-भ. कु. च. ।
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