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________________ षष्ठ अध्याय ४३१ अविद्यासंस्कार-प्रगुणकरण-ग्रामशरणः, परद्रव्यं गृध्नुः कथमहमधोधश्चिरमगाम् । तदद्योद्यद्विद्यादृतिधृतिसुधास्वादहृतत गरः स्वध्यात्योपर्युपरि विहराम्येष सततम् ॥२९॥ प्रगुणः-विषयग्रहणाभिमुखः । शरणं-आश्रयः । गृध्नु:-अभिलाषुकः । स्वध्यात्या-आत्मनि संतत्या वर्तमानया निर्विकल्पनिश्चलया बुद्धया । तदुक्तम् - 'इष्टे ध्येये स्थिरा बुद्धिर्या स्यात्संतानवतिनी । ज्ञानान्तरापरामृष्टा सा ध्यातिर्ध्यानमोरिता ॥ [ तत्त्वानु., ७२ श्लो. ] ॥२९॥ अथ शौचमहिमानमभिष्टौति निर्लोभतां भगवतीमभिवन्दामहे मुहुः। यत्प्रसादात्सतां विश्वं शश्वद्भातीन्द्रजालवत् ॥३०॥ इन्द्रजालवत्-इन्द्रजालेन तुल्यमनुपभोग्यत्वात् ॥३०॥ अथ लोभमाहात्म्यमुपाख्यानमुखेन ख्यापयन्नाह आत्मा और शरीरमें अभेदज्ञान रूप अविद्याके संस्कारसे अपने-अपने विषयोंको ग्रहण करने में संलग्न इन्द्रियाँ ही अनादिकालसे मेरे लिए शरण थीं। अतः परद्रव्यकी चाहसे मैं किस प्रकार नीचे-नीचे जाता रहा। अब उत्पन्न हुई शरीर और आत्माके भेदज्ञानरूप विद्याका सारभूत जो सन्तोषरूप अमृत है, उसके आस्वादसे मेरा तृष्णारूपी विष दूर हो गया है। अतः अब वही मैं आत्मामें लीन निर्विकल्प निश्चल ध्यानके द्वारा निरन्तर ऊपर-ऊपर विहार करता हूँ॥२९॥ विशेषार्थ-आत्मा और शरीरमें एकत्वबुद्धि होनेसे अथवा शरीरको ही आत्मा माननेसे यह जीव विषयासक्त इन्द्रियोंको ही सब कुछ मानकर उन्हींमें लीन रहता है। इसीसे उसका पतन होता है और संसारका अन्त नहीं आता। वह रात-दिन परद्रव्यको प्राप्त करने के उपायों में ही फंसा रहता है। कितना भी द्रव्य होनेसे उसकी तृष्णा तृप्त होनेके बदले और बढ़ती है। इसके विपरीत जब वह शरीर और आत्माके भेदको जान लेता है तो उस भेदज्ञानके निचोडसे उसे असन्तोषके स्थानमें सन्तोष होता है और उससे उसकी तृष्णा शान्त हो जाती है । तब वह आत्माके निर्विकल्प स्थानमें मग्न होकर उत्तरोत्तर मोक्षकी ओर बढ़ता है । ध्यानका स्वरूप इस प्रकार कहा है-'भावसाधनमें ध्यातिको ध्यान कहते हैं। और सन्तानक्रमसे चली आयी जो बुद्धि अपने इष्ट ध्येयमें स्थिर होकर अन्य ज्ञानके परामशसे रहित होती है अर्थात् निर्विकल्प रूपसे आत्मामें निश्चल होती है उसे ही ध्याति कहते हैं। यही ध्यान है ॥२९॥ शौचके माहात्म्यकी प्रशंसा करते हैं जिसके प्रसादसे शुद्धोपयोगमें निष्ठ साधुओंको सदा यह चराचर जगत् इन्द्रजालके तुल्य भासमान होता है उस भगवती निर्लोभताको मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ ॥३०॥ ___ एक कथानकके द्वारा लोभका माहात्म्य कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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