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धर्मामृत (अनगार) अथ लोभपरतन्त्रस्य गुणभ्रंशं व्याचष्टे
तावकीत्य स्पृहयति नरस्तावदन्वेति मैत्रों, ___तावद्वृत्तं प्रथयति विभाश्रितान् साधु तावत् । तावज्जानात्यपकतमघाच्छड़ते तावदच्चै
___स्तावन्मानं वहति न वशं याति लोभस्य यावत् ॥२७॥ अन्वेति-अविच्छेदेन वर्तयति ॥२७॥ अथ लोभविजयोपायसेवायां शिवाथिनः सज्जयन्नाह
प्राणेशमनु मायाम्बां मरिष्यन्तीं विलम्बयन् ।
लोभो निशुम्भ्यते येन तद्भजेच्छौचदैवतम् ।।२८॥ प्राणेशमनु-स्वपराभेदप्रत्ययलक्षणेन मोहेन भर्ना सह । मायाम्बां-वञ्चनामातरम् । मरिष्यन्तीमरणोन्मुखी। विलम्बयत्-अवस्थापयत् । नारी हि स्वभ; सह मर्तुकामा पुत्रेण धार्यत इत्युक्तिलेशः । शौचं-प्रकर्षप्राप्ता लोभनिवत्तिः। मनोगप्ती मनसः परिस्पन्दः सकलः प्रतिषिध्यते । तत्राक्षमस्य परवस्तुष्वनिष्टप्रणिधानोपरमः शौचमिति । ततोऽस्य भेदः ॥२८॥
अथ सन्तोषाभ्यासनिरस्ततृष्णस्यात्मध्यानोपयोगोद्योगमुद्योतयन्नाह
अत्यन्त चाहनेवाला मूढ़ मनुष्य लगातार कौन न करने योग्य काम नहीं करता ? अर्थात् सभी बुरे काम करता है ।।२६।।
आगे कहते हैं कि लोभीके गुण नष्ट हो जाते हैं___ मनुष्य तभी तक यश की चाह करता है, तभी तक मित्रताका लगातार पालन करता है, तभीतक चारित्रको बढ़ाता है, तभी तक आश्रितोंका सम्यक् रीतिसे पालन करता है, तभी तक किये हुए उपकारको मानता है, तभी तक पापसे डरता है, तभी तक उच्च सन्मानको धारण करता है जबतक वह लोभके वश में नहीं होता । अर्थात् लोभके वश में होनेपर मनुष्यके उक्त सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं ॥२७॥
आगे मुमुक्षुओंको लोभको जीतनेके उपायोंकी आराधनामें लगाते हैं
अपने पति मोहके साथ मरनेकी इच्छुक मायारूपी माताको मरनेसे रोकनेवाला लोभ जिनके द्वारा निगृहीत किया जाता है उस शौचरूपी देवताकी आराधना करनी चाहिए ॥२८॥
विशेषार्थ-स्त्री यदि पतिके साथ मरना चाहती है तो पुत्र उसे रोकता है। लोभका पिता मोह है और माता माया है। जब मोह मरता है तो उसके साथ माया भी मरणोन्मुख होती है। किन्तु लोभ उसे मरने नहीं देता। इसलिए लोभका निग्रह करने के लिए शौच देवताकी आराधना करनी चाहिए। यहाँ शौच को देवता इसलिए कहा है कि देवताको अपने आश्रितका पक्षपात होता है। अतः जो शौचका आश्रय लेते हैं शौच उन्हें लोभके चंगुलसे छुड़ा देता है। लोभकी सर्वोत्कृष्ट निवृत्तिको शौच कहते हैं। मनोगुप्तिमें तो मनकी समस्त प्रवृत्तियों को रोकना होता है। जो उसमें असमर्थ होता है उसका परवस्तुओंमें अनिष्ट संकल्प-विकल्प न करना शौच है। इसलिए मनोगुप्तिसे शौच भिन्न है ॥२८॥
जो सन्तोषका अभ्यास करके तृष्णाको दूर भगा देते हैं उनके आत्मध्यानमें उपयोग लगाने के उद्योगको प्रकट करते हैं
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