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धर्मामृत ( अनगार) उपाजेकृतानि-बलाधानयुक्तानि कृतानि । सज्ज-साक्षात्क्षमम् । ओजः-- उत्साहः। अद्धाझटितीति भद्रम् ॥६९॥
इत्याशाधरदब्धायां धर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां
पञ्चमोऽध्यायः । अत्राध्याये ग्रन्थप्रमाणं सप्तत्यधिको द्विशत् । अङ्कतः २७० ।
विशेषार्थ-मन वचन काय सम्बन्धी कृत कारित अनुमोदनासे रहित आहार नवकोटिसे विशुद्ध होता है वही साधुओंके लिए ग्राह्य है। महापुराणमें कहा है-'दाताकी विशुद्धता देय भोज्यको और पात्रको पवित्र करती है। देयकी शुद्धता दाता और पात्रको पवित्र करती है । और पात्रकी शुद्धि दाता और देयको पवित्र करती है।' इस तरह नवकोटिसे विशुद्ध दान बहुत फलदायक होता है । अर्थात् दाता, देय और पात्र इन तीनोंकी शुद्धियोंका सम्बन्ध परस्पर में जोड़नेसे नवकोटियाँ बनती है। इन नवकोटियोंसे विशुद्ध दान विशेष फलदायक होता है ॥६९॥
इस प्रकार पं. आशाधर रचित अनगार धर्मामृत टीका भव्यकुमुद चन्द्रिका तथा ज्ञानदीपिकाकी अनुवर्तिनी हिन्दी टीकामें पिण्डशुद्धिविधान
नामक पञ्चम अध्याय पूर्ण हुआ।
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