________________
पंचम अध्याय
४१३
अपि च
'आधाकम्मपरिणदो पासुगदव्वे वि बंधगो भणिदो।
सुद्धं गवेसमाणो आधाकम्मे वि सो सुद्धो ॥' [ मूलाचार ४८७ ] ॥६॥ अथ शुद्धाहाराहितसामोद्योतितसिद्धयुत्साहांस्त्रिकालविषयान् मुमुक्षूनात्मनः सिद्धि प्रार्थयमानः प्राह
विदधति नवकोटि शुद्धभक्ताद्युपाजे
कृतनिजवपुषो ये सिद्धये सज्जमोजः । विदधतु मम भता भाविनस्ते भवन्तो
ऽप्यसमशमसमृद्धाः साधवः सिद्धिमद्धा॥६९॥ नवकोट्यः--मनोवाक्कायैः प्रत्येकं कृतकारितानुमतानि । तच्छृद्धं--तद्रहितमित्यर्थः । आर्षे
त्वेवम्--
'दातुर्विशुद्धता देयं पात्रं च प्रपुनाति सा । शुद्धिर्देयस्य दातारं पुनीते पात्रमप्यदः ।। पात्रस्य शुद्धिर्दातारं देयं चैव पुनात्यतः।
नवकोटिविशुद्धं तद्दानं भूरिफलोदयम् ॥' [ महापु. २०।१३६-१३७ ] ग्रहण करते हैं किन्तु वे उस अधःकर्म दोषसे लिप्त नहीं होते; क्योंकि उस भोजनके बनानेसे साधुका कृत-कारित या अनुमत रूपसे कोई सम्बन्ध नहीं है। बल्कि साधुको दान देनेसे गृहस्थको रसोई बनाने में जो पाप होता है वह धुल जाता है। आचार्य समन्तभद्रने कहा हैघर छोड़ देनेवाले अतिथियोंकी अर्थात् साधुओंकी पूजा पूर्वक दिया गया दान घरके कामोंसे संचित पापको भी उसी प्रकार दूर कर देता है जैसे पानी रक्तको धो देता है।
किन्तु यदि साधु उस भोजनको अपने लिए बनाया मानकर गौरवका अनुभव करता है तो वह भी उस पापसे लिप्त होता है। मुलाचारमें कहा है-'भोजनके प्रासुक होनेपर भी यदि उसे ग्रहण करनेवाला साधु अधःकर्मसे युक्त होता है अर्थात् यदि उस आहारको बड़े गौरवके साथ अपने लिये किया मानता है तो उसे कर्मबन्ध होता है ऐसा आगममें कहा है। किन्तु यदि साधु शुद्ध आहारकी खोजमें है, जो कृत कारित और अनुमोदनासे रहित हो, तो यदि आहार अधःकर्मसे भी युक्त हो तो भी वह शुद्ध है । उस आहारको ग्रहण करके साधुको बन्ध नहीं होता, क्योंकि साधुका उसमें कृत, कारित आदि रूप कोई भाव नहीं है ॥६॥
आगे शुद्ध आहारके द्वारा प्राप्त हुई सामर्थ्यसे मोक्ष विषयक उत्साहको उद्योतित करनेवाले त्रिकालवर्ती मुमुक्षुओंसे अपनी मुक्तिकी प्रार्थना ग्रन्थकार करते हैं
नवकोटिसे विशुद्ध भोजनादिके द्वारा अपने शरीरको बल देनेवाले और असाधारण उपशम भावसे सम्पन्न जो अतीत, अनागत और वर्तमान साधु सिद्धिके लिए उत्साहको साक्षात् समर्थ बनाते हैं, वे मुझे तत्काल आत्म स्वरूपकी उपलब्धि करावें अर्थात् उनके प्रसादसे मुझे मुक्तिकी प्राप्ति हो ॥६९॥ १. गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमाष्टि खलु गृहविमुक्तानाम् । । अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ।।-रत्न. श्रा., ११४ श्लो. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org