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________________ पंचम अध्याय ४०५ तिरश्चीनं-तिर्यक् स्थापितम् । जानून्यतिक्रमः-जानूपरिव्यतिक्रमाख्यः ॥४७॥ उज्भिताशनं–नियमितवस्तुसेवनम् ॥४८॥ अथ काकादिपिण्डहरणं पाणिपिण्डपतनं पाणिजन्तुवधं मांसादिदर्शनमपसर्ग पाद्यन्तरं पञ्चेन्द्रिय- ३ गमनश्च षट् त्रिभिः श्लोकैराह काकादिपिण्डहरणं काकगृध्रादिना करात् । पिण्डस्य हरणे ग्रासमात्रपातेऽश्नतः करात् ॥४९॥ स्यात्पाणिपिण्डपतनं पाणिजन्तुवधः करे। स्वयमेत्य मृते जीवे मांसमद्यादिदर्शने ॥५०॥ मांसादिदर्शनं देवाद्युपसर्गे तदाह्वयः। पादान्तरेण पञ्चाक्षगमे तन्नामकोऽश्नतः ॥५१॥ स्पष्टानि ॥५१॥ अथ भाजनसंपातमुच्चारं च द्वावाह भूमौ भाजनसंपाते पारिवेषिकहस्ततः । तवाख्यो विघ्न उच्चारो विष्टायाः स्वस्य निर्गमे ॥५२॥ स्पष्टम् ।।५२॥ अथ प्रस्रवणमभोज्यगृहप्रवेशनं च द्वावाहनवाकर जानेपर साधुको नाभिअधोनिर्गम नामक अतीचार होता है । यदि साधु देव-गुरुकी साक्षी पूर्वक छोड़ी हुई वस्तुको खा लेता है तो प्रत्याख्यात सेवा नामक अन्तराय होता है । यदि साधुके सामने बिलाव वगैरह पंचेन्द्रिय चूहे आदिकी हत्या कर देता है तो जन्तुवध नामक अन्तराय होता है ॥४१-४८॥ काकादि पिण्डहरण, पाणिपिण्डपतन, पाणिजन्तुवध, मांसादि दर्शन, उपसर्ग और पादान्तर पंचेद्रिय गमन नामक छह अतीचारोंको तीन श्लोकोंसे कहते हैं ____ भोजन करते हुए साधुके हाथसे यदि कौआ, गृद्ध वगैरह भोजन छीन ले जाये तो काकादि पिण्डहरण नामक अन्तराय होता है। भोजन करते हुए साधुके हाथसे यदि ग्रास मात्र गिर जाये तो पाणिपिण्डपतन नामक अन्तराय होता है। भोजन करते हुए साधुके हाथमें यदि कोई जीव आकर मर जावे तो पाणिजन्तुवध नामक अन्तराय होता है। भोजन करते हुए साधुको यदि मद्य, मांस आदिका दर्शन हो जाये तो मांसादि दर्शन नामक अन्तराय होता है । साधुके ऊपर देव, मनुष्य, तिर्यंच में से किसीके भी द्वारा उपसर्ग होनेपर उपसर्ग नामक अन्तराय होता है। भोजन करते हुए साधुके दोनों पैरोंके मध्यसे यदि कोई पंचेन्द्रिय जीव गमन करे तो पादान्तर पंचेन्द्रियगमन नामक अन्तराय होता है ॥४९-५१।। भाजनसंपात और उच्चार नामक दो अन्तरायोंको कहते हैं साधुके हस्तपुट में जल आदि देनेवालेके हाथसे भूमिपर पात्रके गिरनेपर भाजनसंपात नामक अन्तराय होता है। तथा साधु के गुदाद्वारसे विष्टा निकल जानेपर उच्चार नामक अन्तराय होता है ।।५२।। प्रस्रवण और अभोज्य गृहप्रवेश नामक अन्तरायोंको कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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