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________________ ४०४ धर्मामृत (अनगार) अथामध्यछदिरोधननाम्नस्त्रीनाह लेपोऽमेध्येन पादादेरमेध्यं दिरात्मना। ___ छदनं रोधनं तु स्यान्मा भुक्ष्वेति निषेधनम् ॥४४॥ अमेध्येन-अशुचिना। पादादेः-चरणजङ्घाकाचौदिकस्य । निषेधनं-धरणकादिना भोजननिवारणम् ॥४४॥ अथ रुधिराश्रुपातजान्वधःपरामर्शाख्यास्त्रीन् श्लोकद्वयेनाह रुधिरं स्वान्यदेहाभ्यां वहतश्चतुरङ्गुलम् । उपलम्भोऽस्रपूयादेरश्रुपातः शुचात्मनः ॥४५॥ पातोऽश्रणां मृतेऽन्यस्य कापि वाक्रन्दतः श्रुतिः । स्याज्जान्वधः परामर्शः स्पर्शो हस्तेन जान्वधः ॥४६॥ उपलम्भः-दर्शनम् । शुचा-शोकेन च धूमादिना ॥४५॥ अन्यस्य-अन्यसन्निकृष्टस्य ॥४६॥ अथ जानपरिव्यतिक्रम-नाभ्यधोनिर्गमन-प्रत्याख्यातसेवन-जन्तुवध-नाम्नश्चतुरः श्लोकद्वयेनाह जानुदघ्नतिरश्चीन-काष्ठाद्युपरि लङ्घनम् । जानुव्यतिक्रमः कृत्वा निर्गमो नाभ्यधः शिरः ॥४७॥ नाभ्यधो निर्गमः प्रत्याख्यातसेवोज्झिताशनम् । स्वस्याग्रेऽन्येन पञ्चाक्षघातो जन्तुवधो भवेत् ॥४८॥ आगे अमेध्य, छर्दि और अन्तराय नामक तीन अन्तरायोंको कहते हैं मार्गमें जाते हुए साधुके पैर आदिमें विष्टा आदिके लग जानेसे अमेध्य नामका अन्तराय होता है। किसी कारणसे साधुको वमन हो जाये तो छर्दि नामका अन्तराय होता है। आज भोजन मत करो इस प्रकार किसीके रोकनेपर रोधन नामका अन्तराय होता है । अन्तराय होनेपर भोजन त्याग देना होता है ॥४४॥ रुधिर, अश्रुपात और जानु अधःपरामर्श इन तीन अन्तरायोंको कहते हैं अपने या दूसरेके शरीरसे चार अंगुल या उससे अधिक तक बहता हुआ रुधिर, पीव आदि देखनेपर साधुको रुधिर नामक अन्तराय होता है । यदि रुधिरादि चार अंगुलसे कम बहता हो तो उसका देखना अन्तराय नहीं है। शोकसे अपने आँस गिरनेसे या किसी सम्बन्धीके मर जानेपर ऊँचे स्वरसे विलाप करते हुए किसी निकटवर्ती पुरुष या स्त्रीको सुननेपर भी अश्रुपात नामक अन्तराय होता है। यदि आँसू धुएँ आदिसे गिरे हों तो वह अश्रुपात अन्तराय नहीं है। सिद्ध भक्ति करनेके पश्चात् यदि साधु के हाथसे अपने घुटने के नीचेके भागका स्पर्श हो जाये तो जानु अधःस्पर्श नामक अतीचार होता है ।।४५-४६॥ जानूपरिव्यतिक्रम, नाभिअधोनिर्गमन, प्रत्याख्यातसेवन और जन्तुवध नामक चार अतीचारोंको दो श्लोकोंसे कहते हैं घुटने तक ऊँचे तथा मार्गावरोधके रूपमें तिरछे रूपसे स्थापित लकड़ी, पत्थर आदिके ऊपरसे लाँघकर जानेपर जानुव्यतिक्रम नामक अतीचार होता है। नाभिसे नीचे तक सिरको १. स्त्रीनन्तरायानाह भ. कु. च. । २. शाजान्वादेः भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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