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पंचम अध्याय
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भूषाञ्जनचूर्ण::- शरीरशोभालङ्करणाद्यथं नेत्रनैर्मल्यार्थं च द्रव्यरजः । तत् भोजनजननम् । दोषत्वं चात्र पूर्वत्र जीविकादिक्रियया जीवनात् परत्र च लज्जाद्याभोगस्ये करणात् ॥२७॥ अथैवमुत्पादनदोषान् व्याख्यायेदानीमशनदोषोद्देशार्थमाह
शङ्कित पिहित प्रक्षित- निक्षिप्त-च्छोटितापरिणताख्याः । दश साधारणदायक लिप्तविमिश्रः सहेत्यशनदोषाः ||२८|| स्पष्टम् ॥२८॥
अथ शङ्कितदोषविहितदोषौ लक्षयति
संदिग्धं किमिदं भोज्यमुक्तं तो वेति शङ्कितम् । पिहितं देयमप्रासु गुरु प्रास्वपनीय वा ||२९||
भोज्यं — भोजनार्हम् । उक्तं - आगमे प्रतिपादितम् । यच्च ' किमयमाहारो अधः कर्मणा निष्पन्न उत न' इत्यादिशङ्कां कृत्वा भुज्यते सोऽपि शङ्कितदोष एव । अप्रासु - सचित्तं पिधानद्रव्यम् । प्रासु - अचित्तं पिधानद्रव्यम् । गुरु- भारिकम् । उक्तं च
विशेषार्थ - पिण्डनिर्युक्ति में आँखोंमें अदृश्य होनेका अंजन लगाकर किसी घर में भोजन करना चूर्ण दोष है । जैसे दो साधु इस प्रकारसे अपनेको अदृश्य करके चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करते थे । चन्द्रगुप्त भूखा रह जाता था । धीरे-धीरे उसका शरीर कृश होने लगा । तब चाणक्यका उधर ध्यान गया और उसने युक्तिसे दोनोंको पकड़ लिया। दूसरे, एक साधु पैरमें लेप लगाकर नदीपर से चलता था। एक दिन वह इसी तरह आहार के लिए गया । दाता उसके पैर धोने लगा तो वह तैयार नहीं हुआ । किन्तु पैर पखारे बिना गृहस्थ भोजन कैसे कराये । अतः साधुको पैर धुलाने पड़े। पैरोंका लेप भी धुल गया । भोजन करके जानेपर साधु नदी में डूबने लगा तो उसकी पोल खुल गयी । मूल दोषका उदाहरण देते हुए कहा है- एक राजाके दो पत्नियाँ थीं। बड़ी पत्नी गर्भवती हुई तो छोटीको चिन्ता हुई । एक दिन एक साधु आहार के लिए आये तो उन्होंने छोटीसे चिन्ताका कारण पूछा। उसके बतलानेपर साधुने कहा- तुम चिन्ता मत करो। हम दवा देते हैं तुम भी गर्भवती हो जाओगी। छोटी बोली- गद्दीपर तो बड़ीका ही पुत्र बैठेगा । ऐसी दवा दो जो उसका भी गर्भ गिर जाये । साधुने वैसा ही किया । यह मूल दोष है ||२७||
इस प्रकार उत्पादन दोषोंका प्रकरण समाप्त हुआ ।
इस प्रकार उत्पादन दोषोंको कहकर अब अशन दोषोंको कहते हैं -
जो खाया जाता है उसे अशन कहते हैं । अशन अर्थात् भोज्य । उसके दस दोष हैं - शंकित, पिहित, प्रक्षित, निक्षिप्त, छोटित, अपरिणत, साधारण, दायक, लिप्त और विमिश्र ||२८||
अब शंकित आदि दोषोंके लक्षण कहने की इच्छासे प्रथम ही शंकित और पिहित दोषों के लक्षण कहते हैं
यह वस्तु आगममें भोजनके योग्य कही है अथवा नहीं कही है इस प्रकारका सन्देह होते हुए उसे ग्रहण करना शंकित दोष है । यह आहार अधः कर्म से बना है या नहीं, इत्यादि
१. गस्वीकर - भ. कु. च.
२. संकिय मक्खिय निक्खित्त पिहिय साहरिय दाय गुम्मीसे ।
अपरिणय लित्त छड्डिय एसण दोसा दस हवंति ॥ - पिण्डनिर्युक्ति, ५२० गा. ।
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