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धर्मामृत ( अनगार) २०. अनगारधर्मामृतटीका-अनगार धर्मामृतपर रचित भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका भी माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे उसके चौदहवें पुष्पके रूपमें १९१९ में प्रकाशित हुई थी। इसकी रचना भी नलकच्छपुरके नेमिजिनालयमें जैतुगिदेवके राज्यमें वि. सं. १३०० में हुई थी। जिस पापा साहुके अनुरोधसे जिनयज्ञकल्प रचा गया था उसके दो पुत्र थे-बहुदेव और पद्मसिंह । बहुदेवके तीन पुत्र थे-हरदेव, उदयी और स्तम्भदेव । हरदेवने प्रार्थना की कि मुग्धबुद्धियोंको समझानेके लिए महीचन्द्र साहुके अनुरोधसे आपने सागार धर्मकी तो टोका बना दी किन्तु अनगार धर्मामृत तो कुशाग्र बुद्धिवालोंके लिए भी अत्यन्त दुर्बोध है इसकी भी टीका बनानेकी कृपा करें। तब आशाधरजोने इसकी टीका रचो। इसका परिमाण १२२०० श्लोक जितना है। यही टीका आशाधरजीके पाण्डित्य और विस्तृत अध्ययनकी परिचायिका है। इसमें मूलग्रन्थसे सम्बद्ध आचारविषयक चर्चाओंको स्पष्ट तथा ग्रन्थान्तरोंसे प्रमाण देकर पुष्ट किया गया है।
रचनाकाल-रचनाओंके उक्त परिचयमें दिये गये उनकी रचनाओंके कालसे आशाधरजीका रचनाकाल एक तरहसे निर्णीत-सा हो जाता है । वि. सं. १३०० के पश्चात् की उनकी किसी कृतिका निर्देश नहीं मिलता । तथा वि. सं. १२८५ तक वे पन्द्रह रचनाएँ रच चुके थे। १२८५ के पश्चात् पन्द्रह वर्षों में अपनी पाँच रचनाओंका ही उल्लेख उन्होंने किया है। अतः उनका मुख्य रचनाकाल १२८५ से पूर्व ही रहा है। मोटे तौरपर विक्रमकी तेरहवीं शतीका उत्तरार्ध ही उनका रचनाकाल था।
४. आशाधरके द्वारा स्मृत ग्रन्थ और ग्रन्थकार आशाधरने अपनी टीकाओंमें पूर्वके अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका निर्देश किया है और अनेक ग्रन्थोंसे बिना नामोल्लेखके उद्धरण दिये हैं । अनगार धर्मामृतकी टीकामें ही उद्धृत पद्योंकी संख्या एक हजारसे ऊपर है। यदि उन सबके स्थलोंका पता लग सके तो एक विशाल साहित्य भण्डार हमारे सामने उपस्थित हो जाये। किन्तु प्रयत्न करनेपर भी अनेक प्राचीन ग्रन्थोंके अप्राप्य या लुप्त हो जानेसे सफलता नहीं मिलती। नीचे हम संक्षेपमें उनका परिचय अंकित करते हैं
१. आचार्य समन्तभद्रका निर्देश प्रायः स्वामी शब्दसे ही किया गया है। अन. टी. में प. १६० पर स्वामिसूक करके उनके रत्नकरण्ड श्रावकाचारसे अनेक श्लोक उद्धृत किये हैं। सागार धर्मामतके दूसरे अध्यायमें अष्ट मलगुणोंके कथनमें रत्नकरण्डका मत दिया है। वहाँ उसकी टीकामें 'स्वामीसमन्तभद्रमते' लिखकर उनका नामनिर्देश भी किया है। इसी में भोगोपभोग परिमाण व्रतके अतिचारोंके कथनमें 'अत्राह स्वामी यथा' लिखकर र. श्रा. का श्लोक देकर उसकी व्याख्या भी की है। अन्य भी अनेक स्थलोंपर रत्नकरण्ड श्रावकाचारका उपयोग किया गया है। अन. ध. टी. प. ९५ में यह प्रश्न किया गया है कि इस युगके लोग आप्तका निर्णय कैसे करें ? उत्तर में कहा गया है आगमसे और शिष्टोंके उपदेशसे निर्णय करें। इसकी टीकामें आगमके स्थानमें र. श्रा. का 'आप्तेनोत्सन्नदोषेण' आदि श्लोक उद्धृत किया है और 'शिष्टाः' की व्याख्या 'आप्तोपदेशसम्पादित शिक्षाविशेषाः स्वामिसमन्तभद्रादयः' की है। इस तरह उनके प्रति बहुत ही आदरभाव प्रदर्शित किया है।
२. भट्टाकलंकदेव-अन. टी. पृ. १६९ पर 'तथा चाहुर्भट्टाकलंकदेवाः' करके कुछ श्लोक उद्धृत है जो लघीयस्त्रयके अन्तिम श्लोक हैं।
३. भगवज्जिनसेनाचार्य-अन. टी. पृ. १७७ पर भगवज्जिनसेनाचार्यको मेघकी उपमा दी है क्योंकि वे विश्वके उपकारक हैं। उनके महापुराणका उल्लेख आर्ष रूपमें ही पृ. ७,२०,४०,४८०, ५६६ आदि पर सर्वत्र किया गया है। सागार धर्मामतकी पंजिका तथा टीकामें भी आपके नामसे महापुराणके ३८-३९ पर्वके बहत-से श्लोक उद्धृत है । सागारधर्मके निर्माणमें उससे बहत सहायता ली गयी है।
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