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धर्मामृत ( अनगार) निष्पीय-अतिशयेन पीत्वा । एतेनोद्यवनं द्योत्यते । पक्तुं-परिणमयितुम् । अनाकुलं-लोभादिक्षोभरहितम् । एतेन निर्वहणं प्रतीयते । विधिं-सूत्रोक्तं तीर्थगमनादिव्यवहारम्
-मरणावधि। ३ एतेन निस्तरणं भण्यते । अधिकशः-अधिकमधिकम् । एतेन साधनमभिधीयते । देवः । उक्तं च
'मान्य ज्ञानं तपोहीनं ज्ञानहीनं तपोऽहितम् ।
द्वयं यस्य स देवः स्याद् द्विहीनो गणपूरणः ॥' [सो. उपा. ८१५ श्लो. ] सैषा चरणसिद्धिमूलशुद्धात्मद्रव्यसिद्धिप्रकाशना । यदाह
'द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धी द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः। बुद्धवेति कर्माविरताः परेऽपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरन्तु ॥'
[प्रवचनसार, चरणानुयोगचूलिका ] ॥१७७॥ अथातश्चतुःश्लोक्या चारित्रमाहात्म्यं श्रोतुकामः प्रथमं तावत् प्ररोचनार्थमानुषङ्गिकमभ्युदयलक्षणं मुख्यं च निर्वाणलक्षणं तत्फलमासूत्रयति
सदृग्ज्ञप्त्यमृतं लिहन्नहरहर्भोगेषु तृष्णां रहन्
- वृत्ते यत्नमथोपयोगमुपयन्निर्मायमूर्मोनयन् । तत्किचित् पुरुषश्चिनोति सुकृतं यत्पाकमूर्छन्नव
प्रेमास्तत्र जगच्छ्यिश्चलदृशेऽपोष्यन्ति मुक्तिश्रिये ॥१७॥ और दर्शन जीवका स्वभाव है क्योंकि जीव ज्ञानदर्शनमय है और ज्ञानदर्शन जीवमय है। इसका कारण यह है कि सामान्य विशेष चैतन्य स्वभाव जीवसे ही वे निष्पन्न होते हैं। जीवके स्वभावभूत उन ज्ञान दर्शनमें नियत अवस्थित जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप अस्तित्व है जिसमें रागादि परिणामका अभाव है वह अनिन्दित चारित्र है। इसका स्पष्टीकरण इसी प्रकार है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन जीवका स्वभाव है क्योंकि सहज शुद्ध सामान्य विशेष चैतन्यात्मक जीवके अस्तित्वसे संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिके भेदसे भेद होनेपर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे अभेद है। इस प्रकार पूर्वोक्त जीव स्वभावसे अभिन्न उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक निर्विकार अतएव अदूषित जो जीवके स्वभावमें नियतपना है वही चारित्र है क्योंकि स्वरूपमें चरणको चारित्र कहते हैं। पञ्चास्तिकायमें कहा भी है-संसारीजीवोंमें दो प्रकारका चरित होता है-स्वचरित और परचरित । उनमेंसे जो स्व-स्वभावमें अवस्थित अस्तित्वरूप है जो कि परभावमें अवस्थित अस्तित्वसे भिन्न होने के कारण अत्यन्त अनिन्दित है वही साक्षात् मोक्षमार्ग है अतः मुमुक्षुओंको उसीके लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। यह चारित्रकी सिद्धि शुद्ध आत्म द्रव्यकी सिद्धिका मूल है-कहा है-'चारित्रकी सिद्धि होनेपर द्रव्यकी सिद्धि होती है और द्रव्यकी सिद्धि होनेपर चारित्रकी सिद्धि होती है। ऐसा जानकर कर्मोंसे अविरत दूसरे भी द्रव्यसे अविरुद्ध आचरण करें ॥१७७॥ - इस प्रकार उद्योतन आदि पाँच चारित्राराधनाओंका प्रकरण समाप्त हुआ।
अब यहाँसे चार श्लोकोंके द्वारा चारित्रका माहात्म्य कहना चाहते हैं। उनमें सबसे प्रथम चारित्रमें रुचि उत्पन्न करनेके लिए चारित्रका अभ्युदयरूप आनुषंगिक फल और निर्वाणरूप मुख्य फल बतलाते हैं
भोगोंमें तृष्णारहित होकर निरन्तर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानरूप अमृतका आस्वादन करनेवाला और सम्यक्चारित्रके विषयमें न केवल प्रयत्नशील किन्तु सदा उसका अनुष्ठान १. 'द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिद्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ'-प्रव. सार ।
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