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चतुर्थ अध्याय
अथैवं चारित्रस्योद्योतनमभिधायेदानीं तदुव [ तदुद्यम] नादिचतुष्टयाभिधानार्थमाहज्ञेयज्ञातृ तथा प्रतीत्यनुभवाकारैकदृग्बोधभाग, द्रष्टृज्ञातृ निजात्मवृत्तिवपुषं निष्पीय चर्यासुधाम् । पक्तुं दिनाकुलं तदनुबन्धायैव कंचिद्विधि,
कृत्वाप्यामृति यः पिबत्यधिकशस्तामेव देवः स वै ॥ १७७॥
ज्ञेयेत्यादि -- ज्ञेयैर्बोध्यैर्हेयोपादेयतत्त्वैरुपलक्षितो ज्ञाता शुद्धचिद्रूप आत्मा । अथवा ज्ञेयानि च ज्ञाता चेति द्वन्द्वः । तत्र तथा यथोपदिष्टत्वेन प्रतीतिः प्रतिपत्तिरनुभवश्चानुभूतिस्तावाकारौ स्वरूपे ययोरेकदृग्बोधयोः तात्त्विकसम्यक्त्वज्ञानयोस्तौ तथाभूतौ भजनम् । वृत्तिः - उत्पादव्ययीव्यैकस्वलक्षणमस्तित्वम् । वपुः-स्वभावः । उक्तं च
'जीवसहावं गाणं 'अप्पविदे दंसणं अणण्णमयं ।
चरियं च तेसु नियदं अत्थित्तमणिदियं भणिदं ॥ [ पञ्चास्ति. १५४ । ]
इस प्रकार चारित्र के उद्योतनका कथन करके अब उसके उद्यमन आदि शेष चारका कथन करते हैं
ज्ञेय और ज्ञातामें तथा प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन और तथा अनुभूतिरूप सम्यग्ज्ञानके साथ तादात्म्यका अनुभवन करनेवाला, द्रष्टा ज्ञातारूप निज आत्मामें उत्पादव्यय- ध्रौव्यरूप वृत्ति ही जिसका स्वभाव है उस चारित्ररूपी अमृतको पीकर उसे पचानेके लिए निराकुलभावको धारण करता हुआ, उस चारित्ररूपी अमृतके पानका अनुवर्तन करनेके लिए ही आगमविहित तीर्थयात्रा आदि व्यवहारको करके भी जो उसी चारित्ररूपी अमृतको अधिकाधिक पीता है वह निश्चित ही देव है - महान् पुरुषोंके द्वारा भी आराध्य है || १७७||
विशेषार्थ - हेय - उपादेय तत्त्वोंको ज्ञेय कहते हैं और उनको जाननेवाले शुद्ध चिद्रूप आत्माको ज्ञाता कहते हैं । ज्ञेय और ज्ञाता में अथवा ज्ञेयसे युक्त ज्ञातामें सर्वज्ञ भगवान् के जैसा कहा गया है और जैसा उनका यथार्थ स्वरूप है तदनुसार प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है और तदनुसार अनुभूति होना सम्यग्ज्ञान है । ये दोनों ही आत्मा के मुख्य स्वरूप हैं । अतः इन दोनोंको कथंचित् तादात्म्यरूपसे अनुभव करनेवाला उस चारित्ररूपी अमृतको पीता है जिसका स्वरूप है द्रष्टा - ज्ञातारूप निज आत्मा में लीनता । और उसे पीने के बाद पचाने के लिए लाभ पूजा ख्यातिकी अपेक्षारूप क्षोभसे रहित निराकुल रहता है । लोकमें भी देखा जाता है कि लोग अमृत आहारको खाकर उसे पचानेके लिए सवारी आदिपर गमन नहीं करते । यहाँ चारित्ररूपी अमृतका पान करनेसे उद्यवनं सूचित होता है और उसे पीकर निराकुल वहन करनेसे निर्वहण सूचित होता है तथा उस प्रकारके चारित्ररूपी अमृतके पानकी परम्पराको प्रवर्तित रखनेके लिए तीर्थयात्रा आदि व्यवहार धर्मको करने से निस्तरण सूचित होता है और उसी चारित्ररूप अमृतको अधिकाधिक पीनेसे साधन सूचित होता है । इस तरह जो उद्यमन आदि चार चारित्राराधनाओंमें संलग्न होता है वह निश्चय ही देव है । कहा भी है- 'तपसे हीन ज्ञान मान्य है और ज्ञानसे हीन तप पूज्य है । जिसके ज्ञान और तप दोनों होते हैं वह देव होता है और जो दोनोंसे रहित है वह - केवल संख्या पूरी करनेवाला है।' सारांश यह है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन या ज्ञान
१. अप्पडिहद भ. कु. च. ।
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