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चतुर्थ अध्याय
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यदाह
'व्रतदण्डकषायाक्षसमितानां यथाक्रमम् ।
संयमो धारणं त्यागो निग्रहो विजयोऽवनम् ॥' [सं. पं. सं. २३८ ] जिघत्सुः-भक्षयितुमिच्छुः । एतेनातिक्रमो गम्यते । यदाह
'क्षति मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलवतेविलङ्घनम् ।
प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ।।' [ अमित. द्वात्रि.] अदमः-अदान्तः । समुत्सार्यतां-दूरीक्रियताम् दान्तः क्रियतां निगृह्यतामिति यावत् । विलंघ्य । एतेन व्यतिक्रमो गम्यते । यथेष्टं चरन्-यो य इष्टो विषयस्तमुपयुञ्जानः । धुन्वन्-विध्वंसयन् । एतेनातिचारो लक्ष्यते । विष्वगित्यादि । एतेनानाचारोऽवसीयते ॥१७४।। अथ चारित्रविनयं निदिशंस्तत्र प्रेरयति
सदसत्वार्थकोपादिप्रणिधानं त्यजन् यतिः।
भजन्समितिगुप्तीश्च चारित्रविनयं चरेत् ॥१७५॥ विशेषार्थ-संयमका स्वरूप इस प्रकार कहा है-व्रतोंका धारण, समितियोंका पालन, कषायोंका निग्रह, दण्ड अर्थात् मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिका त्याग और पाँचों इन्द्रियोंका जय, इसे संयम कहा है । जैसे धान्य खेतमें उत्पन्न होता है वैसे ही संयम आत्मामें उत्पन्न होता है । अतः संयमरूप धान्यकी उत्पत्तिके लिए आत्मा खेतके तुल्य है। धान्य जब पककर तैयार होता है तो उसमें अनाजके दाने भरे होते हैं और उससे वह बहुत सुन्दर लगता है। इसी तरह संयमकी आराधनाका फल सात प्रकारकी ऋद्धियाँ हैं। इन ऋद्धियोंसे वह अत्यन्त मनोरम होता है। वे ऋद्धियाँ इस प्रकार हैं-बुद्धिऋद्धि, तपऋद्धि, विक्रियालब्धि, औषधऋद्धि, रसऋद्धि, बलऋद्धि, अक्षीणऋद्धि ये सात ऋद्धियाँ कही हैं। इनका विस्तृत वर्णन तत्त्वार्थवार्तिक (३।३६) में है किन्तु उसमें एक क्रिया नामकी ऋद्धि भी बतलायी है और इस तरह आठ ऋद्धियाँ कही हैं। इस संयमरूपी हरे-भरे खेतकी रक्षाके लिए शीलरूपी बाड़ी रहती है। किन्तु उच्छं खल मनरूपी साँड़ इस हरे-भरे संयमरूपी धान्यको चर जाना चाहता है। यदि उसका दमन नहीं किया गया तो वह शीलरूपी बाड़ीको लाँघकर स्वच्छन्दतापूर्वक उसे चरता हुआ संयमरूपी धान्य सम्पदाको फलसे शून्य कर पूरी तरहसे उसे रौंद डालेगा। इसमें उच्छृखल मनरूपी साँड़ संयमरूपी धान्यसमूहको खाना चाहता है इससे अतिक्रम सूचित होता है । शीलरूपी बाड़ीको लांघनेसे व्यतिक्रमका बोध होता है । यथेष्ट चरनेसे अतीचारका निश्चय होता है और सब ओरसे रौंद डालनेसे अनाचारका बोध होता है। इन चारोंके लक्षण इस प्रकार हैं-संयमके सम्बन्धमें मनकी शद्धिकी विधिकी हानिको अतिक्रम, शीलकी बाड़के उल्लंघनको व्यतिक्रम, विषयोंमें प्रवृत्तिको अतीचार और उनमें अति आसक्तिको अनाचार कहते हैं ॥१७४॥
चारित्रविनयका स्वरूप दर्शाते हुए उसको पालनेकी प्रेरणा करते हैं
इन्द्रियोंके इष्ट और अनिष्ट विषयोंमें राग-द्वेष करने और क्रोध आदि कषायरूप परिणमनका त्याग करते हुए तथा समिति और गुप्तियोंका पालन करते हुए साधुको चारित्रकी विनय करनी चाहिए ॥१७५।। १. 'वद-समिदिकसायाणं दंडाण तहिंदियाण पंचण्हं ।।
धारण-पालणणिग्गह-चागजओ संजमो भणिओ' ।-गो. जी. ४६४ गा.।
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