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धर्मामृत ( अनगार) गुणोच्चारणविधानं यथा
'मुक्ते प्राणातिपातेन तथातिक्रमवजिते । पृथिव्याः पृथिवीजन्तोः पुनरारम्भसंयते ॥ निवृत्तवनितासंगे चाकम्प्य परिवजिते ।
तथालोचनया शुद्धे गुण आद्यस्तथा परे॥' [ ] द्वितीयादिगुणा यथा--हिंसाद्येकविंशति संस्थाप्य तदूर्वमतिक्रमादयश्चत्वाराः स्थाप्याः । तदुपरि पथिव्यादि दश । तदूर्व स्त्रीसंसर्गादयो दश । ततश्चोर्ध्वमाकम्पितादयो दश । ततोऽप्यूद्धर्वमालोचनादयो दश ।
ततो मृषावादेन निर्मुक्त इत्यादिनोच्चारणेन वाच्ये द्वितीयो गुणः। ततश्च अदत्तादाननिर्मुक्त इत्यादिना ९ तृतीयः । एवं तावदुच्चार्य यावच्च चतुरशीतिलक्षा गुणाः सम्पूर्णा उत्पन्ना भवन्तीति ॥१७३॥
एवं सप्रपञ्चं सम्यक्चारित्रं व्याख्याय साम्प्रतं तदुद्योतनाराधनां वृत्तत्रयेण व्याख्यातुकामस्तावदतिक्रमादिवर्जनाथं ममक्षन सज्जयति
चित्क्षेत्रप्रभवं फलद्धिसुभगं चेतोगवः संयम
व्रीहिवातमिमं जिघत्सुरदमः सद्भिः समुत्सार्यताम् । नोचेच्छोलवृति विलंध्य न परं क्षिप्रं यथेष्टं चरन्
धुन्वन्नेनमयं विमोक्ष्यति फलैविष्वक् च तं भक्ष्यति ॥१७४॥ फलर्द्धयः-सद्वृत्ताराधनस्य फलभूता ऋद्धयः सप्तबुद्धयतिशयादि लब्धयः । तद्यथा
'बुद्धि तवो विय लद्धी विउव्वणलद्धी तहेव ओसहिया।
रसबलअक्खीणा वि य रिद्धीणं सामिणो वंदे ॥' [ वसु. श्रा., ५१२ गा. ] पक्षे फलसंपत्तिः । चेतोगव:-मनोवलीवर्दः । संयमः-व्रतधारणादिलक्षणः ।
इनकी स्थापनाका क्रम इस प्रकार है-हिंसा आदि इक्कीसकी स्थापना करके उसके ऊपर अतिक्रम आदि चारकी स्थापना करना चाहिए। उसके ऊपर पृथिवी आदि सौकी स्थापना करना चाहिए। उसके ऊपर स्त्रीसंसर्ग आदि दसकी स्थापना करना चाहिए। उसके ऊपर आकम्पित आदि दसकी स्थापना करना चाहिए। उसके ऊपर आलोचना आदिकी स्थापना करना चाहिए। इस प्रकार स्थापित करके असत्यसे विरत आदि पूर्वोक्त क्रमसे दूसरा गुण होता है । चोरीसे विरत इत्यादि क्रमसे तीसरा गुण होता है। इसी प्रकार योजना कर लेना चाहिए ॥१७३॥
इस प्रकार विस्तारके साथ सम्यक् चारित्रका व्याख्यान करके अब तीन पद्योंके द्वारा उसकी उद्योतनरूप आराधनाका वर्णन करनेकी भावनासे सर्वप्रथम अतिक्रम आदिका त्याग करनेके लिए मुमुक्षुओंको प्रेरित करते हैं
चित् अर्थात् आत्मारूपी खेतमें उत्पन्न होनेवाले और ऋद्धिरूप फलोंसे शोभायमान इस संयमरूपी धान्यके ढेरको उच्छं खल चित्तरूपी साँड़ खा जाना चाहता है। अतः चारित्रकी आराधनामें तत्पर साधुओंको इसका दमन करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो शीलरूपी बाढ़को लांघकर इच्छानुसार चरता हुआ तथा नष्ट करता हुआ शीघ्र ही यह चित्तरूपी साँड़ न केवल इस संयमरूपी धान्यसमूहको फलोंसे शून्य कर देगा किन्तु पूरी तरह उसे रौंद डालेगा ॥१७४।।
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