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________________ धर्मामृत (अनगार ) 'योगे करणसंज्ञाक्षे धरादौ धर्म एव च । अष्टादशसहस्राणि स्युः शीलानि मिथो वधे || मनोगुप्ते मुनिश्रेष्ठे मनः करणवर्जिते । आहारसंज्ञया मुक्ते स्पर्शनेन्द्रियसंवृते ॥ सधरासंयमे क्षान्तिसनाथे शीलमादिमम् । तिष्ठत्यविचलं शुद्धे तथा शेषेष्वपि क्रमः ॥' ] द्वितीयादीनि यथा - 'वाग्गुप्ते मुनिश्रेष्ठे' इत्यादिनोच्चारणेन द्वितीयम् । एवं 'कायगुप्ते मुनिश्रेष्ठे' इत्यादिना तृतीयम् । ततश्च 'मनोगुप्ते मुनिश्रेष्ठे वाक्करणवर्जिते' इत्यादिना चतुर्थम् । ततश्च 'वाग्गुप्ते ९ मुनिश्रेष्ठे वाक्करणवर्जिते' इत्यादिना पञ्चमम् । ततश्च 'कायगुप्ते मुनिश्रेष्ठे वाक्करणवर्जिते' इत्यादिना षष्ठं सभी अक्ष अचल स्थित होकर विशुद्ध होते हैं । इस तरह शीलके अठारह हजार भेद आते हैं। ३ ६ ३६० श्वेताम्बर परम्परामैं भी इसी प्रकार भेद कहे हैं । किन्तु कुछ अन्तर भी है-तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियाँ, पृथिवीकायिक आदि नौ जीव (वनस्पति एक ही भेदरूप लिया है) एक अजीवकाय और दस श्रमण धर्म, क्षमा आदि इनको परस्पर में गुणा करनेसे अठारह हजार भेद होते हैं। इस तरह जीव सम्बन्धी दस भेदोंमें एक अजीवकायको लेकर दस संख्या पूरी की गयी है। अजीवकायमें महामूल्य वस्त्र, पात्र, सोना, चाँदी, अज आदिका चर्म, कोदों आदिके तृण लिये गये हैं क्योंकि साधुके लिए त्याज्य हैं । इनको मिलानेका क्रमे 'नहीं करता है' यहाँ करनेरूप प्रथम योग लिया । 'मनसे' प्रथम करण लिया । 'आहारसंज्ञासे हीन' इससे पहली संज्ञा ली । 'नियमसे श्रोत्रेन्द्रिय से संवृत' इससे प्रथम इन्द्रिय ली । ऐसा होते हुए पृथिवीकायकी हिंसा नहीं करता । इससे प्रथम जीवस्थान लिया । 'क्षमासे युक्त' इससे प्रथम धर्म भेद लिया । इस तरह शीलका एक अंग प्रकट होता है । आगे इसी प्रकारसे मार्दव आदि पदके संयोगसे पृथिवीकायको लेकर शीलके दस भेद होते हैं अर्थात् उक्त प्रथम अंगकी तरह क्षमाके स्थान में मार्दव, आर्जव आदिको रखने से दस भेद होते हैं । तथा इसी तरहसे पृथ्वीकाय के स्थान में जलकाय आदि स्थानों को रखने से सौ भेद होते हैं । ये सौ भेद श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी होते हैं शेष चक्षु आदि इन्द्रियोंके भी सौ-सौ भेद होनेसे पाँच सौ भेद होते हैं । ये पाँच सौ भेद आहारसंज्ञाके १. जोए करणे सण्णा इंदिय भूमादि समणधम्मे य । सीलिंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स णिप्पत्ती ॥ पञ्चाशक १४।३। २. ण करति मणेण आहारसण्णाविप्पजढगो उ नियमेण । सोइ दियसंवुडो पुढविकायारंभ खंतिजुओ ॥ - पञ्चा. १४|६| ३. इय मद्दवादिजोगा पुढविकाए भवंति दस भेया । आउक्कायादीसु वि इय एते पिंडिय तु सयं । सोइदिएण एवं सेसेहि वि जे इमं तओ पंचो | आहारसणजोगा इय से साहिं सहस्सदुगं ॥ एयं मणेण वइमा दिएसु एयं ति छस्सहस्साइं । ण करेइ सेसह पिय एस सव्वे वि अट्ठारा ॥ पञ्चा. १४७-९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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