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________________ चतुर्थ अध्याय -पुण्यादाननिमित्तमनोवाक्कायव्यापारपरिणति सर्वकर्मक्षयार्थी वा गुप्तित्रयीम् । इतरहति- अशुभयोगनिराकृतित्रयीम्। संज्ञाविरति-आहार-भय-मैथुन-परिग्रहाभिलाषनिवृत्तिचतुष्टयीम् । अक्षरोधं-स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षः-श्रोत्रसंवरणं पञ्चतयम् । क्ष्मादियममलात्ययं-क्ष्मादयो दश । तद्यथा __'भूमिरापोऽनलो वायुः प्रत्येकानन्तकायिकाः। द्विकत्रिकचतुःपञ्चेन्द्रिया दश धरादयः ।।[ तेषु यमाः प्राणव्यपरोपणोपरमा विषयभेदादश । तेषां मलात्ययाः प्रत्येकमतीचारनिवृत्तिस्तं दशतयम् । क्ष्मादीन्-क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि दश । तेषामन्योन्यं गुणने अष्टादशशीलसहस्राणि भवन्ति । तद्यथा-शुभयोगवृत्तिभिस्तिसभिरभ्यस्ता अशुभयोगनिवृत्तयस्तिस्रो नव शीलानि स्युः । तानि संज्ञाविरतिभिश्चतस्रभिर्गणितानि षटत्रिशत स्युः। तानीन्द्रियरोधैः पञ्चभिस्ताडितान्यशीत्यधिक शतं स्युः । तानि क्ष्मादियममलात्ययैर्दशभिर्हतान्यष्टादशशतानि स्युः । तान्येव पुनः क्षमादिभिर्दशभिः संगुणितान्यष्टादशसहस्राणि सीलानि स्युः । तथा चोक्तम् दस अतिचारोंकी विशुद्धि तथा उत्तम क्षमा, मादव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्यरूप दस धर्म, इन सबका परस्परमें गुणन करनेसे शीलके अठारह हजार भेद होते हैं ॥१७२॥ विशेषार्थ-शीलके अठारह हजार भेदोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-तीन शुभयोगरूप प्रवृत्तियोंसे तीन अशुभयोग निवृत्तियोंको गुणा करनेसे ३४३=९ नौ शील होते हैं। इन नौको चार संज्ञाओंकी चार निवृत्तियोंसे गुणा करनेसे छत्तीस भेद होते हैं। छत्तीसको पाँच इन्द्रिय सम्बन्धी पाँच निरोधोंसे गुणा करनेपर एक सौ अस्सी भेद होते हैं। उन्हें पृथ्वी आदि यम सम्बन्धी अतीचारोंकी दस निवृत्तियोंसे गुणा करनेपर अट्ठारह सौ भेद होते हैं। पृथिवी आदि दस इस प्रकार हैं-'पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक और अनन्तकायिक तथा दो-इन्द्रिय, ते-इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये जीवोंके दस प्रकार हैं। इनके प्राणोंके घातके त्यागरूप दस ही यम हैं। उनमें से प्रत्येकके अतीचारकी निवृत्तिके क्रमसे दस ही निवृत्तियाँ हैं । इनसे १८० को गुणा करनेपर अठारह सौ भेद होते हैं। पुनः उन भेदोंको क्षमा आदि दस धर्मोंसे गुणा करनेपर अठारह हजार भेद शीलके होते हैं । कहा भी है-'तीन योग, तीन करण, चार संज्ञाएँ, पाँच इन्द्रिय, दस जीव संयम और दस धर्म (३४३४४४५४१०४१०) इनको परस्परमें गुणा करनेसे शीलके अठारह हजार भेद होते हैं। जो मुनिश्रेष्ठ मनोयोग और आहारसंज्ञासे रहित है, मनोगुप्तिका पालक है, स्पर्शन इन्द्रियसे संवृत है, पृथिवीकायिक सम्बन्धी संयमका पालक है, उत्तम क्षमासे युक्त है, उस विशुद्ध मुनिके शीलका पहला भेद होता है। शेषमें भी इसी क्रमसे जानना । अर्थात् वचनगुप्तिका पालन करनेवाले उक्त मुनिराजके शीलका दूसरा भेद होता है। कायगुप्तिके पालक उक्त मुनिराजके तीसरा भेद होता है। वचनयोगसे रहित मनोगुप्तिके पालक उक्त प्रकारके मुनिराजके चौथा भेद होता है। वचनयोगसे रहित वचनगुप्तिके पालक उक्त मुनिराजके पाँचवाँ भेद होता है । वचनयोगसे रहिन कायगुप्तिके पालक उक्त मुनिराजके छठा भेद होता है। . 'तीन गुप्तियों को' एक पंक्तिमें स्थापित करके उनके ऊपर तीन करण उसी प्रकारसे स्थापित करके उसके पश्चात् क्रमसे चार संज्ञाएँ, पाँच इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि दस, तथा दस धर्मोकी स्थापना करके पूर्वोक्त क्रमसे शेष शीलोंको भी तब तक कहना चाहिए जब तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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