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चतुर्थं अध्याय
'रात्रौ च तत्त्यजेत् स्थाने प्रज्ञाश्रमणवीक्षिते । कुर्वन् शङ्कानिरासा यावहस्तस्पर्शनं मुनिः ॥ द्वितीयाद्यं भवेत्तच्चेदशुद्धं साधुरिच्छति । लघुत्वस्यावशे दोषे न दद्याद् गुरुकं यतेः ॥' [ अथ निरतिचारसमितिपरस्य हिंसाद्यभावलक्षणं फलमाह -
समितीः स्वरूपतो यतिराकारविशेषतोऽप्यनतिगच्छन् । जीवाकुलेsपि लोके चरन्न युज्येत हिंसाद्यैः ॥ १७० ॥ स्वरूपतः - यथोक्तलक्षणमाश्रित्य । यतिः - यत्नपरः साधुः । मार्गादिविशेषलक्षणमाश्रित्य । अनतिगच्छन् - अतिचारविषयी अकुर्वन् ॥ १७० ॥ अथ समितीनां माहात्म्यमनुवर्णयंस्तासां सदासेव्यत्वमाहपापेनान्यवधेऽपि पद्ममणुशोऽप्युद्गेव नो लिप्यते, यद्युक्तो यदनादृतः परवधाभावेऽप्यलं वध्यते । द्योगादधिरुह्य संयमपदं भान्ति व्रतानि द्वया
] ॥ १६९॥.
न्यप्युद्भान्ति च गुप्तयः समितयस्ता नित्यमित्याः सताम् ॥ १७१ ॥
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आकारविशेषतः - यथोक्तं
अणुशोऽपि - अल्पेनापि अल्पमपि वा । उद्गा - उदकेन ।
पादमास निशा हृदय यूषदोर्दन्तनासिकोदकासनशकृद्यकृदसृजां पन्मासनिश्हृद्यूषन् दोषन् दत् वस् उदन् आसन् शकन् यकन् असनो वा स्यादावघुटीत्यनेनोदकस्योदन् । उक्तं च
रात्रिके सम्बन्धमें लिखा है - 'मुनिको रात्रि में प्रज्ञाश्रमणके द्वारा निरीक्षित स्थानमें मलत्याग करना चाहिए । यदि स्थानकी शुद्धिमें शंका हो तो उलटे हाथसे स्पर्श करके देख लेना चाहिए । यदि वह अशुद्ध हो तो दूसरा स्थान देखना चाहिए । यदि मलत्याग शीघ्र हो जाये तो मुनिको गुरु प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए; क्योंकि उस दोषमें उसका वश नहीं था ॥ १६९ ॥
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आगे कहते हैं कि निरतिचार समितियोंका पालन करनेवाले साधुको हिंसा आदिके अभावरूप फलकी प्राप्ति होती है
पूर्व में समितियों का जो सामान्य स्वरूप कहा है उसकी अपेक्षासे और मार्ग आदि विशेषणों की भी अपेक्षासे जो साधु उनके पालन में तत्पर रहता है और अतिचार नहीं लगाता, वह साधु त्रस और स्थावर जीवोंसे भरे हुए भी लोकमें गमनादि करनेपर हिंसा आदिके दोषोंसे लिप्त नहीं होता ॥ १७० ॥
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समितियोंके माहात्म्यका वर्णन करते हुए उनके सदा पालन करनेकी प्रेरणा करते हैंजिन समितियोंका पालक साधु अन्य प्राणीके प्राणोंका दैववश घात हो जानेपर भी जलसे कमलकी तरह किंचित् भी पापसे लिप्त नहीं होता, और जिन समितियोंके प्रति असावधान साधु अन्य प्राणिका घात न होनेपर भी पापसे अच्छी तरह बँधता है, तथा जिन समितियोंके सम्बन्धसे संयमपदपर आरोहण करनेसे अणुव्रत और महाव्रत चमक उठते हैं तथा गुप्तियाँ शोभित होती हैं उन समितियोंका पालन साधुओंको सदा करना चाहिए ॥ १७१ ॥
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