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________________ ३५६ धर्मामृत ( अनगार ) निर्जन्तौ कुशले विविक्तविपुले लोकोपरोधोज्झिते, प्लुष्टे कृष्ट उतोषरे क्षितितले विष्टादिकानुत्सृजन् । धुः प्रज्ञाश्रमणेन नक्तमभितो दृष्टे विभज्य विधा, सुस्पृष्टेऽप्यपहस्तकेन समितावुत्सर्ग उत्तिष्ठते ॥१६९॥ निर्जन्तौ-द्वीन्द्रियादिजीवजिते हरिततृणादिरहिते च । कुशले-वल्मीकाद्यातङ्ककारणमुक्तत्वा६ प्रशस्ते । विविक्तं-अशुच्याद्यवस्कररहितं निर्जनं च । प्लुष्टे-दवस्मशानाद्यग्निदग्धे । कृष्टे-हलेनासकृद् विदारिते। ऊषरे-स्थण्डिले । विष्टादिकान्-पुरीष-मूत्र-मुखनासिकागतश्लेष्मकेशोत्पाटनवालसप्तमधातुपित्तछदिप्रमुखान् । द्य:-दिने । उक्तं च 'वणदाहकिसिमसिकदे छंडिल्ले अणुपरोधविच्छिण्णे । अवगतजंतुविवित्तै उच्चारादि विसज्जेज्जो ।। उच्चारं पस्सवणं खेलं सिंघाणयादि जं दव्वं । अच्चित्त भूमिदेसे पडिलेहित्ता विसज्जेज्जो ।'-[ मूलाचार, ३२१-२२ ] प्रज्ञाश्रमणेन-वैयावृत्यादिकुशलेन साधुना विनयपरेण सर्वसंघप्रतिपालकेन वैराग्यपरेण जितेन्द्रियेण च । विभज्य विधा । इदमत्र तात्पर्य प्रज्ञाश्रमणेन सति सूर्ये रात्रौ साधूनां विषमूत्राद्युत्सर्गार्थं त्रीणि स्थानानि १५ द्रष्टव्यानि । तथा च सति प्रथमे कदाचिदशुद्धे द्वितीयं द्वितीयेऽपि वाशुद्ध तृतीयं तेऽनुसरन्ति । अपहस्तकेन विपरीतकरतलेन । उक्तं च दोइन्द्रिय आदि जीवोंसे तथा हरे तृण आदिसे रहित, साँपकी बाँबी आदि भयके कारणोंसे रहित होनेसे प्रशस्त, निर्जन तथा विस्तीर्ण, लोगोंकी रोक-टोकसे रहित, वनकी या श्मशानकी आगसे जले हुए, या हलके द्वारा अनेक बार खोदे गये, अथवा ऊसर भूमिमें दिनके समय मल, मूत्र, कफ, नाक, बाल, वमन आदिका त्याग करनेवाले मुनिके उत्सर्ग स होती है। रात्रिके समयमें यदि बाधा हो तो दिनमें प्रज्ञाश्रमण मुनिके द्वारा अच्छी तरह देखे गये तीन स्थानोंमें-से किसी एक शुद्धतम स्थानमें विपरीत हाथसे अच्छी तरह देखकर मूत्रादिका त्याग करना उत्सर्ग समिति है ॥१६९।। विशेषार्थ-शरीरके मलोंके त्यागका नाम उत्सर्ग है और उसकी जो विधि ऊपर बतलायी है उस विधिसे त्यागना उत्सर्ग समिति है। जिस स्थानपर मलका त्याग किया जाये वह भूमि उक्त प्रकारकी होनी चाहिए। यह सब दिनमें ही देखा जा सकता है। किन्तु तपस्वी एकाहारी साधुको रात्रिमें मल-मूत्रकी बाधा प्रायः रुग्णावस्थामें ही होती है। इसलिए उसकी विधि यह है कि जो साधु वैयावृत्यमें कुशल, विनयी, सर्वसंघका पालक, वैरागी और जितेन्द्रिय होता है उसे प्रज्ञाश्रमण कहा जाता है. वह दिनमें जाकर रात्रिमें साधुओंके मलत्यागके लिए तीन स्थान देख रखता है। यदि पहला स्थान अशुद्ध हो तो दूसरा, दूसरा अशुद्ध हो तो तीसरा स्थान काममें लाया जाता है। ऐसा करते समय साधु उस स्थानको हथेलीके उलटे भागसे अच्छी तरह स्पर्श करके देख लेते हैं कि स्थान शुद्ध है या नहीं, तब मलत्याग करते हैं। मूलाचारमें कहा है वनकी आगसे जले हुए, कृषि द्वारा जोते हुए, लोगोंकी रोक-टोकसे रहित, निर्जन्तुक एकान्त भूमिदेशमें मल-मूत्रादि त्यागना चाहिए । टट्टी, पेशाब, नाक, थूक आदि निर्जन्तुक भूमिप्रदेशमें प्रतिलेखन करके त्यागना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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