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धर्मामृत ( अनगार) - यदाह'यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते ।
। जायेत चित्तं तत्रैव लीयते ॥'[समाधि तं बलो. ९५ ] अपि च
'बहुनोत्र किमुक्तेन ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वतः।
ध्येयं समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्यं तत्र बिभ्रता ॥ [ तत्त्वातु. १३८ श्लो. ] अतीत्यादि । उक्तं च
'सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते । ततो ज्ञानस्वभावोऽयमात्मा ध्येयतमः स्मृतः ॥' 'तत्रापि तत्त्वतः पञ्च ध्यातव्याः परमेष्ठिनः ।
चत्वारः सकलास्तेषु सिद्धस्वामी तु निष्कलः ॥ [ तत्त्वानु. ११८-११९] गयी मैत्री आदि भावनाओंका अभ्यास करना चाहिए। क्योंकि कहा है-ये भावनाएँ मुनिजनोंमें आनन्दामृतकी वर्षा करनेवाली अपूर्व चन्द्रिकाके समान हैं । ये रागादि संक्लेशोंको ध्वस्त करनेवाली मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेके लिए दीपिकाके समान हैं। इसके साथ ही युक्ति और आगमके अभ्याससे जीवादि तत्त्वोंका निर्णय करके उनमें से जो रुचे उसका ध्यान करे। रुचनेसे मतलब यह नहीं है कि जिससे राग या द्वेष हो उसका ध्यान करे। ऐसा ध्यान तो सभी संसारी प्राणी करते हैं। रागद्वेषका विषय न होते हुए जो श्रद्धाका विषय हो वह रुचित कहा जाता है। कहा है
जिस किसी विषयमें पुरुषकी बुद्धि सावधान होती है उसी विषयमें उसकी श्रद्धा होती है। और जिस विषयमें श्रद्धा होती है उसीमें चित्त लीन होता है। तथा-इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या, इस समस्त ध्येयको यथार्थ रूपसे जानकर तथा श्रद्धान करके उसमें माध्यस्थ्य भाव रखकर ध्यान करना चाहिए। __अतः ध्येयमें माध्यस्थ्य भाव आवश्यक है क्योंकि ध्यानका प्रयोजन ही परम औदासीन्य भाव है। इसलिए ध्याताको उसीके लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। अब प्रश्न होता है कि किसका ध्यान करना चाहिए। कहा है-ज्ञाताके होनेपर ही ज्ञेय ध्येयताको प्राप्त होता है । इसलिए ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ही ध्येयतम-सबसे अधिक ध्यान करने योग्य है। उसमें भी वस्तुतः पाँच परमेष्ठी ध्यान करनेके योग्य हैं। उनमें अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय
और साधु परमेष्ठी तो सशरीर होते हैं और सिद्ध स्वामी अशरीर हैं। ध्यानके चार भेद ध्येयकी अपेक्षासे कहे हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । अर्हन्त परमात्माके स्वरूपका चिन्तन रूपस्थ ध्यान है क्योंकि अर्हन्त सशरीर होते हैं। और अशरीरी सिद्धोंके स्वरूपका चिन्तन रूपातीत ध्यान है । इन ध्यानोंके स्वरूपका विस्तारसे वर्णन ज्ञानाणवमें किया है। मुक्तिकी प्राप्तिमें ध्यानका बहुत महत्त्व है। कहा है१. यत्रव जायते श्रद्धा भ. कु. च.। २. किमत्र बहुनोक्तेन भ. कु. च.। ३. 'स च मुक्तिहेतुरिद्धो ध्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोऽपि ।
तस्मादम्यसन्तु ध्यानं सुधियः सदाप्यपास्यालस्यम् ॥-तत्त्वानुशा. ३३ श्लो. ।
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