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चतुर्थं अध्याय तपोगुणाधिके पुंसि प्रश्रयाश्रयनिर्भरः । जायमानो मनोरागः प्रमोदो विदुषां मतः ॥
नाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् ।
हर्षामर्षोज्झिता वृत्तिमध्यस्थ्यं निर्गुणात्मनि ॥' [ सोम. उपा. ३३५-३३७ ] भावयन्तु — वीर्यान्तरायचारित्रमोहक्षयोपशमे सत्यसकृत् प्रवर्तयन्तु ॥ १५१ ॥
अधुना
'अव्रती व्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायणः ।
परात्मबुद्धिसंपन्नः स्वयमेव परो भवेत् ॥ [ समाधि तं. - ८६ श्लो. ] इति मोक्षमार्गविहरणक्रम मुररीकृत्य मैत्र्यादिभावना -स्वाध्याय-व्यवहार-निश्चयध्यान- फलप्रकाशनेन महाव्रतनिर्वाहपरांस्तदुपयोगाय जागरयितुमाह
मैत्रयाद्यभ्यसनात् प्रसद्य समयादावेद्य युक्त्याञ्चितात्
यत्किचिदुचितं चिरं समतया स्मृत्वातिसाम्योन्मुखम् । ध्यात्वान्तमुतस्विदेकमितरेष्वत्यन्तशुद्धं मनः
सिद्धं ध्यायदहं महोमयमहो स्याद्यस्य सिद्धः स वै ॥१५२॥ प्रसद्य - अप्रशस्त रागद्वेषादिरहितं भूत्वा । यदाह'एता मुनिजनानन्दसुधास्यन्दैकचन्द्रिकाः ।
ध्वस्त रागादिसंक्लेशा लोकाग्रपथदीपिकाः ॥ ' [ ज्ञानार्णव २७।१५ । ] अर्चितात् - पूजितादनुगृहीतादित्यर्थः । रुचितं - श्रद्धया विषयीकृतम् ।
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उलटे नाराज होते हैं। ऐसे प्राणियों में उपेक्षाभाव रखना माध्यस्थ्य है । कहा भी है- जो क्रूर कर्मोंमें निःशंक प्रवृत्ति करते हैं, देवता-गुरुकी निन्दा करते हैं, अपनी प्रशंसा करते हैं, उनमें उपेक्षा भाव रखना माध्यस्थ्य कहा है । इस प्रकार उक्त भावनाएँ सतत भानी चाहिए || १५१ ॥ आगे 'जो अती है वह व्रत ग्रहण करके और व्रतीको ज्ञानाभ्यास में तत्पर होकर तथा ज्ञान तत्पर परमात्म-बुद्धिसे सम्पन्न होकर स्वयं परमात्मा हो जाता है ।'
इस कथन के अनुसार मोक्षमार्ग में विहार करना स्वीकार करके जो उक्त महाव्रतों का निर्वाह करनेमें तत्पर हैं उन्हें मैत्री आदि भावनाओं, स्वाध्याय तथा व्यवहार निश्चयरूप ध्यानका फल बताते हुए उनके उपयोगके लिए सावधान करते हैं
मैत्री आदि भावनाओंके अभ्यास से अप्रशस्त रागद्वेषसे रहित होकर, आगम अविरुद्ध युक्तियोंसे सुशोभित, आगमसे ध्यान करने के योग्य जीव आदि वस्तुका यथार्थ रूपसे निर्णय करके, जबतक परम उदासीनताकी योग्यता प्राप्त हो तबतक जो कोई चेतन या अचेतन वस्तु रागद्वेषका विषय न होकर श्रद्धाका विषय हो उसका ध्यान करे, और परम औदासीन्य परिणामके प्रयत्नसे तत्पर होते हुए अर्हन्तका अथवा आचार्य, उपाध्याय और साधुमें से किसी एकका ध्यान करके अत्यन्त शुद्ध सिद्ध परमात्माका ध्यान करे । हे महाव्रतों का पालन करने में उद्यत मुनिगण ! ऐसा करते हुए जिस साधुका मन आत्मतेजोमय हो जाता है वही साधु शुद्ध निश्चयवादियों में महात्रतोंका अच्छी तरह पालन करनेवाला माना जाता है अथवा शुद्धस्वरूप परिणत वह ध्याता निश्चयसे सिद्ध है, अर्थात् भावसे परममुक्त होता है ॥ १५२ ॥ विशेषार्थ - महाव्रती साधुओंको किस प्रकार अपने लक्ष्यकी ओर बढ़ना चाहिए, इसका दिग्दर्शन यहाँ किया है। सबसे प्रथम अप्रशस्त रागद्वेषसे बचनेके लिए ऊपर बतलायी
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