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________________ चतुर्थ अध्याय २८३ अथ स्त्रीणां निसर्गवञ्चकत्वेन दुःखककारणत्वमुपदर्शयन् लोकस्य ततः स्वतश्च मुग्धत्वमुद्भावयति - लोकः किन्तु विदग्धः किं विधिदग्धः स्त्रियं सुखाङ्गेषु । यद्धरि रेखयति मुहविश्रम्भं कृन्ततीमपि निकृत्या ॥७३॥ विधिदग्धः - दैवेन प्लुष्टः मतिभ्रष्टः कृतः । अथवा विधिविहिताचरणं दग्धोऽस्येति ग्राह्यम् । रेखयति - रेखायतां करोति गणयतीत्यर्थः । निकृत्या - वञ्चनया ॥७३॥ अथ स्त्रीचरित्रं योगिनामपि दुर्लक्षमिति लक्षयति परं सूक्ष्ममपि ब्रह्म परं पश्यन्ति योगिनः । न तु स्त्रीचरितं विश्वमतद्विद्यं कुतोऽन्यथा ॥७४॥ अतद्विद्यं - स्त्रीचरितज्ञामशून्यं महर्षिज्ञानपूर्वकत्वात् सर्वविद्यानाम् । श्लोक:'मायागेहं ( ससन्देहं ) नृशंसं बहुसाहसम् । कामेर्षेः स्त्रीमनोलक्ष्यमलक्ष्यं योगिनामपि ॥' [ ] ॥७४॥ अथ स्त्रीणां दम्भादिदोषभूयिष्ठतथा नरकमार्गाग्रेसरत्वं निवेदयन् दुर्देवस्य तत्पथप्रस्थान सूत्रधारतां १२ प्रत्याचष्टे दोषा दम्भतमस्तु वैरगरलव्याली मृषोद्यातडिन्मेघाली कलहाम्बुवाहपटलप्रावृडू वृषौजोज्वरः । कन्ब पंज्व र रुद्रभालदुगसत्कर्मोमिमालानदी, स्त्री श्वभ्राध्वपुरःसरी यदि नृणां दुर्दैव कि ताम्यसि ॥७५॥ आगे कहते हैं स्त्रियाँ स्वभावसे ही ठक विद्यामें कुशल होनेसे एकमात्र दुःखकी ही कारण होती हैं फिर भी लोग उनके विषयमें सदा मूढ़ ही बने रहते हैं - पता नहीं, संसारके प्राणी क्या व्यवहारचतुर हैं या दैवने उनकी मति भ्रष्ट कर दी है। जो वे छलसे बार-बार विश्वासघात करनेवाली भी स्त्रीको सुखके साधनों में सबसे प्रथम स्थान देते हैं ॥७३॥ विशेषार्थ - विदग्धका अर्थ चतुर भी होता है और वि - विशेषरूपसे दग्ध अर्थात् अभागा भी होता है । उसीको लेकर ग्रन्थकारने लोगोंके साथ व्यंग किया है कि वे चतुर हैं या अभागे हैं ? आगे कहते हैं कि स्त्रीका चरित्र योगियोंके लिए भी अगम्य है योगिजन अत्यन्त सूक्ष्म भी परम ब्रह्मको स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जान लेते हैं किन्तु स्त्रीके चरितको नहीं जानते । यदि जानते तो यह विश्व स्त्रीचरितके ज्ञानसे शून्य क्यों रहता ? अर्थात् इस विश्वको जो भी ज्ञान प्राप्त हुआ है वह योगियोंके द्वारा ही प्राप्त हुआ है । यतः संसार स्त्रीचरितको नहीं जानता । अतः प्रतीत होता है कि योगियोंको भी स्त्रीचरितका ज्ञान नहीं था ॥७४॥ | Jain Education International आगे मायाचार आदि दोषोंकी बहुलता के कारण स्त्रियोंको नरकके मार्गका अप्रेसर बतलाते हुए दुर्दैवके नरकके मार्गमें ले जानेकी अगुआईका निराकरण करते हैं जो मायारूपी अन्धकारके प्रसारके लिए रात्रि है, वैररूपी विषके लिए सर्पिणी है, असत्यवादरूपी बिजलीके लिए मेघमाला है, कलहरूपी मेघोंके पटलके लिए वर्षाऋतु है, १. कामान्धैः भ. कु. च. । ३ For Private & Personal Use Only १५ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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