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________________ २७९ चतुर्थ अध्याय २७९ अथ कामार्तस्य किमप्यकृत्यं नास्तीति ज्ञापयति अविद्याशाचक्र-प्रसमर-मनस्कारमरुता. ज्वलत्युच्चैर्भोक्तुं स्मरशिखिनि कृत्स्नामिव चितम् । रिरंसुः स्त्रीपते कृमिकुलकलङ्क विधुरितो, नरस्तन्नास्त्यस्मिन्नहह सहसा यन्न कुरुते॥६॥ आशा-भाविविषयाकाङ्क्षा दिशश्च । चक्रप्रसमर:-चक्रेण संघातेन सन्तानेन पक्षे मण्डलाकारेण प्रसरणशीलः । मनस्कार:-चित्तप्रणिधानम् । चित्तं-चेतनाम । कृमय:-योनिजन्तवः । यद्वात्स्यायन: 'रक्तजाः कृमयः सूक्ष्मा मदुमध्याधिशक्तयः। जन्मवर्त्मसु कण्डूतिं जनयन्ति तथाविधाम् ॥' [ ] ॥६७।। अथ ग्राम्यसुखोत्सुकबुद्धेर्धनार्जन-कर्मसाकल्यश्रमाप्रगुणत्वमशेषयोषिदयन्त्रणान्तःकरणत्वं च व्याचष्ष्टे आपातमृष्टपरिणामकटौ प्रणुन्नः, किंपाकवन्निधुवने मदनग्रहेण । किं किं न कर्म हतशर्म धनाय कुर्यात्, क क स्त्रियामपि जनो न मनो विकुर्यात् ॥६८॥ १२ आपातमृष्टं-उपयोगोपक्रमे (-मृष्टं-) मधुरं सुखवदाभासनात् । उक्तं च आगे कहते हैं कि कामसे पीड़ित मनुष्यके लिए कुछ भी अकरणीय नहीं है जैसे अज्ञात दिशाओंसे बहनेवाले वायुमण्डलसे प्रेरित आग जब इस तरह तीव्र रूपसे जलने लगती है कि मानो वह सब कुछ जलाकर भस्म कर देगी, तब उससे अत्यन्त घबराया हुआ मनुष्य कीड़ोंसे भरे हुए कीचड़में भी गिरनेको तैयार हो जाता है। उसी तरह शरीर और आत्माके भेदको न जानकर भावी भोगोंकी इच्छाओंकी बहुलता सम्बन्धी संकल्पविकल्परूप वायसे प्रेरित कामाग्नि इस प्रकार जलने लगती है मानो समस्त चेतनाको खा जायेगी । उस समय यह कामी मनुष्य कामसे पीड़ित होकर कीड़ोंसे भरे हुए स्त्रीयोनिमें रमण करनेकी इच्छासे ऐसा कोई भी अकृत्य इस जगत्में नहीं है जिसे वह न करता हो यह बड़े खेद और आश्चर्यकी बात है। अर्थात् कामाग्निके प्रदीप्त होनेपर व्याकुल हुआ मनुष्य कीचड़के तुल्य स्त्रीमें रमण करनेकी इच्छासे सभी अकृत्य कर डालता है ॥६७॥ विशेषार्थ-स्त्रीको ऐसी कीचड़की उपमा दी है जिसमें कीड़े बिलबिलाते हैं। जैसे कीचड़में फंसकर निकलना कठिन होता है वैसे ही स्त्रीके रागमें फंस जानेपर उससे निकलना कठिन होता है। तथा स्त्रीकी योनिमें ऐसे जन्तु कामशास्त्रमें बतलाये हैं जिनसे स्त्रीको पुरुषके संसर्गकी इच्छा होती है। कहा है-'स्त्रियोंकी योनिमें रक्तजन्य सूक्ष्म कीट होते हैं जो रिरंसाके कारणभूत खाजको उत्पन्न करते हैं ।।६७।। आगे कहते हैं कि विषय सुखकी उत्सुकतासे मनुष्य रात दिन धन कमानेके साधनोंमें जुटा रहता है और उसका मन सभी स्त्रियोंके प्रति अनियन्त्रित रहता है मैथुन किंपाक फलके समान प्रारम्भमें मधुर लगता है किन्तु परिणाममें कटु है । कामरूपी भूतके द्वारा बहुत अधिक प्रेरित होकर मैथुन सेवनमें प्रवृत्त हुआ मनुष्य धनके लिए कौन-कौन कष्टदायक व्यापार नहीं करता और किस-किस स्त्रीमें अपने मनको विकारयुक्त नहीं करता अर्थात् मानुषी, देवी, तिरश्ची, निर्जीव स्त्रियों तकमें अपने मनको विकृत करता है ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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