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चतुर्थ अध्याय
२७७ 'पूर्वे दर्वीकृतां वेगे दुष्टं श्यावीभवत्यस्रक् । श्यावता नेत्रवक्त्रादौ सर्पन्तीव च कीटिकाः ॥ द्वितीये ग्रन्थयो वेगे तृतीये मूर्द्धगौरवम् । दृग्रोधो दंशविक्लेदश्चतुर्थे ष्ठीवनं वमिः ॥ 'संधिविश्लेषणं तन्द्रा पञ्चमे पर्वभेदनम् । दाहो हिध्मा तु षष्ठे तु हृत्पीडा गात्रगौरवम् ।। 'मूर्छा विपाकोऽतीसारः प्राप्य शुक्रं च सप्तमे ।
स्कन्धपृष्ठकटीभङ्गः सर्वचेष्टानिवर्तनम् ।।' [अष्टाङ्ग. उत्त. ३६।१९-२२] सम-सर्व युगपद्वा । यल्लोकः
'उच्छु सरासणु कुसुमसरु अंगु ण दीसइ जासु । __ हलि म (त) सु मयण महाभडह तिहुवणि कवणु ण दासु॥' [ ] दंदष्टि-गहितं दशति । गर्दा चात्र वृद्धेष्वप्यतिज्वलनादनौचित्यप्रवृत्ता। हठन्- (द-) दीप्यमानो १२ बलात्कारयुक्तो वा ॥६५॥
'हे कामदेव ! मैं तुम्हारा स्वरूप जानता हूँ। तू संकल्पसे पैदा होता है। मैं संकल्प नहीं करूंगा। तब तू कैसे पैदा होगा।' सर्पको 'द्विजिह्व' कहते हैं। उसके दो जिह्वा होती हैं। राग-द्वेष कामकी दो जिह्वाएँ हैं। सर्प जब काटता है तो बड़े रोषमें होता है। इच्छितह बीके गुणोंका चिन्तन ही कामका रोष है उससे वह और भी प्रबल होता है। इसी तरह स्त्रीका सौन्दर्य आदि वे छिद्र हैं जिनको देखकर काम रूपी सर्प प्रवेश करता है। साँपके दाढ़ होती है जिससे वह काटता है। वीर्यका उद्रेक ही कामरूपी सर्पकी दाढ़ है । रति उसका मुख है। साँप केचुली छोड़ता है। कामदेव भी लज्जारूपी केंचुली छुड़ाता है। कामी मनुष्य निर्लज्ज हो जाता है। सर्पमें जहर होता है। कामके दस वेग ही उसका जहर है। और इसीसे कामको अपूर्व सर्प कहा है क्योंकि सर्पके विषके सात वेग प्रसिद्ध हैं। वाग्भटने कहा है-'पहले वेगमें मनुष्यका रक्त काला पड़ जाता है, नेत्र-मुख वगैरहपर कालिमा आ जाती है। शरीरमें कीड़े रेंगते प्रतीत होते हैं। दूसरे वेगमें रक्तमें गाँठे पड़ जाती हैं । तीसरे में सिर भारी हो जाता है। दृष्टिमें रुकावट आ जाती है । चौथेमें वमन होती है। शरीरकी सन्धियाँ ढीली पड़ जाती हैं। मुँह में झाग आने लगते हैं। पाँचवें वेगमें शरीरके पर्व अलग होने लगते हैं, जलन पड़ती है, हिचकी आती है। छठेमें हृदयमें पीड़ा होती है, शरीरमें भारीपन आ जाता है, मूर्छा, दस्त आदि होते हैं । सातवें वेगमें कन्धा, पीठ, कमर भंग हो जाती है और अन्तमें मृत्यु हो जाती है। इस तरह साँपके तो सात ही वेग हैं किन्तु कामरूपी सर्पके दस वेग हैं जो आगे बतलायेंगे। अतः कामरूपी सर्प अन्य सोंसे भी बढ़कर होनेसे अपूर्व है। गरुड़ साँपका दुश्मन है । जो उसके समीप होते हैं उन्हें साँप नहीं डॅसता। इसी तरह जो कामके दोषोंका विचार करते रहते हैं उनको कामरूपी सर्प नहीं डंसता है। किन्तु जगत्में वह विवेक विरल ही मनुष्योंके पास है अतः सर्व जगत्को कामने डॅस रखा है। कहा भी है-'हे सखि ! ईख तो उसका धनुष है, पुष्प बाण है और उसका शरीर दिखाई नहीं देता। फिर भी यह काम बड़ा वीर है। तीनों लोकोंमें कौन उसका दास नहीं है ॥६५॥
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