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________________ चतुर्थ अध्याय २५९ अथ जनान्त-सम्मति-न्यास-नाम-रूप-प्रतीतिषु । सत्यं संभावने भावे व्यवहारोपमानयोः'-[ अमित. पं. सं. १११६९] इति दसप्रकारसत्यमुदाहरणद्वारेण प्रचिकटयिषुराह सत्यं नाम्नि नरेश्वरो, जनपदे चोरोऽन्धसि, स्थापने देवोऽक्षादिषु, दारयेदपि गिरि शीर्षेण संभावने । भावे प्रासु, पचौदनं व्यवहृतो, दीर्घः प्रतीत्येति ना पल्यं चोपमितौ सितः शशधरो रूपेऽम्बुजं सम्मतौ ॥४७॥ नरि-मनुष्यमात्रे, ईश्वरः-ऐश्वर्याभावेऽपि व्यवहारार्थमीश्वर इति संज्ञाकरणं नामसत्यमित्यर्थः । अन्धसि-भक्ते चौर इति व्यपदेशो जनपदसत्यम् । तत्र स्वार्थे नियतत्वेन तस्य रूढत्वात् । अक्षादिषुपाशकादिषु देवोऽयमिति न्यसनं स्थापनासत्यम् । संभावने-वस्तुनि तथाऽप्रवृत्तेऽपि तथाभूते कार्ययोग्यतादर्शनात् । अन्ये पुनरस्य स्थाने संयोजनासत्यमाहुः। यच्चारित्रसारे-धूपचूर्णवासानुलेपनप्रघर्षादिषु पद्ममकर-हंस-सर्वतोभद्र-क्रौञ्चव्यूहादिषु वा चेतनेतरद्रव्याणां यथाभागविधानसंनिवेशाविर्भावकं यद्वचस्तत्संयोजना- १२ सत्यम् । भावे प्रासु तथाहि-छद्मस्थज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य संयतासंयतस्य वा स्वगुणपरिपालनार्थ प्रासुकमिदमप्रासुकमित्यादि यद्वचस्तद्भावसत्यम् । निरीक्ष्य स्वप्रयताचारो भवेत्यादिकं वा अहिंसा पुराना धान्य है जो बोनेपर उगता नहीं। राजा वसु मरकर नरक में गया। इसकी विस्तृत कथा सोमदेव उपासकाचारमें देखनी चाहिए । महाभारतमें भी इसी तरह की कथा है।॥४६॥ आगममें दस प्रकारका सत्य कहा है-नाम सत्य, जनपद सत्य, स्थापना सत्य, सम्भावना सत्य, भाव सत्य, व्यवहार सत्य, प्रतीत्य सत्य, उपमा सत्य, रूप सत्य और सम्मति सत्य । इनका उदाहरण पूर्वक कथन करते हैं मनुष्यमात्रमें ऐश्वर्यका अभाव होनेपर भी व्यवहारके लिए ईश्वर नाम रखना नामसत्य है । किसी देशमें भातको चोर कहते हैं। यह जनपद सत्य है क्योंकि उस देशकी भाषामें चोर शब्द इसी अर्थमें नियत है । अक्ष आदिमें 'यह देव है' इस प्रकारकी स्थापनाको स्थापना सत्य कहते हैं। पाशा वगैरहको अक्ष कहते हैं। अमुक व्यक्ति सिरसे भी पर्वतको तोड़ सकता है यह सम्भावना सत्य है। ऐसा वास्तविक रूपमें नहीं होनेपर भी उस प्रकारके कार्यकी योग्यताको देखकर ऐसा कहा जाता है। छद्मस्थ जीवोंका ज्ञान यद्यपि द्रव्यके यथार्थ स्वरूपको देखने में असमर्थ है फिर भी मुनि और श्रावक अपने धर्मका पालन करनेके लिए 'यह प्रासुक है' 'यह अप्रासुक है' इत्यादि जो कहते हैं वह भावसत्य है। जिसमें-से जीव निकल गये हैं उसे प्रासु या प्रासुक कहते हैं। यह अहिंसारूप भावके पालनका अंग होनेसे भाव सत्य कहा जाता है। चावल पकाये जाते हैं किन्तु लोकमें प्रचलित व्यवहारका अनुसरण करके जो 'भात पकाओ' ऐसा वचन कहा जाता है वह व्यवहार सत्य है। किसी मनुष्यको दूसरों की अपेक्षासे लम्बा देखकर 'लम्बा मनुष्य' ऐसा कहना प्रतीत्य सत्य है । उपमान रूपसे जो सत्य है उसे उपमा सत्य कहते हैं जैसे आगममें पल्योपम प्रमाणकी उपमा पल्य ( गड्ढा) से दी जाती है या स्त्रीके मुखको चन्द्रमा की उपमा दी जाती है । रूपमें जो सत्य है वह रूप सत्य है। जैसे चन्द्रमाको श्वेत कहना, यद्यपि चन्द्रमामें काला धब्बा है किन्तु उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। जो लोकमतमें सत्य है वह सम्मति सत्य है जैसे कमल कीचड़ आदि अनेक कारणोंसे पैदा होता है फिर भी लोक में उसे अम्बुज-जो पानी में जन्मा हो, कहते हैं ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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