SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ ६ २५८ १२ धर्मामृत (अनगार ) हेत्वा हास्यं कफवल्लोभमपास्यामवद्भयं भित्वा । वातवदपो को पित्तवदनुसूत्रयेद् गिरं स्वस्थः ॥४५॥ कफवत् — जाड्य मोहादिहेतुत्वात्. आमवत् - अतिदुर्जयविकारत्वात् । आमलक्षणं यथा'ऊष्मणोऽल्पबलत्वेन धातुमान्द्यमपाचितम् । कोद्रवेभ्यो विषस्येव वदन्त्यामस्य संभवम् ॥' [अष्टाङ्गहृदय १३।२५-२६] वातवत् — मनोविप्लवादिहेतुत्वात् । अपोह्य - निषिद्धय । पित्तवत् - संतापभूयिष्ठत्वात् । अनुसूत्र९ येत् — सूत्रानुसारेणाचक्षीत । स्वस्थः - परद्रव्यव्यासङ्गरहितो निर्व्याधिश्च ||४५ || दुष्टमामाशयगतं संतमामं प्रचक्षते ॥ ' 'अन्ये दोषेभ्य एवातिदुष्टेभ्योऽन्योन्यमूर्छनात् । अथ सत्यमृषाभाषिणः फलविशेषमाख्यानमुखेन ख्यापयन्नाह - सत्यवादीह चामुत्र मोदते धनदेववत् । मृषावादी सधिक्कारं यात्यधो वसुराजवत् ॥४६॥ स्पष्टम् ॥४६॥ स्वस्थ मनुष्यको कफकी तरह हास्यका निग्रह करके, आँवकी तरह लोभको दूर करके, वातकी तरह भयको भगाकर और पित्तकी तरह कोपको रोककर सूत्र के अनुसार बोलना चाहिए ॥ ४५ ॥ Jain Education International विशेषार्थ - तत्त्वार्थ सूत्र (७/५ ) तथा चरित्तपाहुडमें सत्यव्रतकी पाँच भावनाएँ कही हैं । सत्यव्रतीको उनको पालन अवश्य करना चाहिए। जो स्वमें स्थित है वह स्वस्थ है । शारीरिक दृष्टि से तो जो नीरोग है वह स्वस्थ है और आध्यात्मिक दृष्टि से जो परद्रव्यविषयक आसक्ति से रहित है वह स्वस्थ है । शारीरिक स्वस्थताके लिए वात-पित्त-कफ और आँवका निरसन आवश्यक है क्योंकि जिसके वात-पित्त-कफ समान है, अग्नि समान है, धातु और मलकी क्रिया समान है उसे स्वस्थ कहते हैं। आध्यात्मिक स्वस्थताके लिए भी क्रोध, लोभ, भय, हँसी, मजाकको छोड़ना जरूरी है क्योंकि मनुष्य क्रोध आदिके वशीभूत होकर झूठ बोलता है || ४५|| सत्य भाषण और असत्य भाषणका फल विशेष उदाहरणके द्वारा कहते हैं सत्यवादी मनुष्य धनदेवकी तरह इस लोक और परलोकमें आनन्द करता है । और झूठ बोलनेवाला राजा वसुकी तरह तिरस्कृत होकर नरकमें जाता है ॥४६॥ विशेषार्थ - आगम में सत्यव्रतका पालन करनेमें धनदेव प्रसिद्ध है । वह एक व्यापारी था । जिनदेव के साथ व्यापार के लिए विदेश गया। दोनोंका लाभमें समभाग ठहरा । लौटने पर जिनदेव अपने वचनसे मुकर गया किन्तु धनदेव अपने वचनपर दृढ़ रहा । राजाने उसका सम्मान किया । राजा वसु नारद और पर्वतका सहपाठी था । जब नारद और पर्वत में 'अजैर्यष्टव्यम्' के अज शब्दको लेकर विवाद हुआ और दोनों वसु राजाकी सभा में न्याय के लिए पहुँचे तो राजा वसुने गुरुपुत्र पर्वतका पक्ष लेकर अजका अर्थ बकरा ही बतलाया अर्थात् बकरेके मांससे यज्ञ करना चाहिए । नारदका कहना था कि अजका अर्थ तीन वर्षका १. ‘क्रोध-लोभ-भीरुत्व- हास्य - प्रत्याख्यानानुवीचिभाषणं च पञ्च । - त. सू. ७1५1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy