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धर्मामृत (अनगार )
अथ चतुःप्रकारमनृतं सोदाहरणं निरूप्य तत्परिहारं त्रिविधेन विधापयितुमार्याद्वयमाह - नालेsस्ति नृणां मृतिरिति सत्प्रतिषेधनं शिवेन कृतम् । क्ष्मादत्यसदुद्भावनमुक्षा वाजीति विपरीतम् ॥ ३८॥ सावद्याप्रियगर्हितभेदात्त्रिविधं च निन्द्य मित्यनृतम् । दोषोरगवल्मीकं त्यजेच्चतुर्धापि तत्त्रेधा ॥ ३९ ॥ [ युग्मम् ]
अकाले—आयुस्थितिकालादन्यदा । नृणां - चरमदेहवर्ज कर्मभूमि मनुष्याणाम् । सत्प्रतिषेधनंअकालेऽपि विषवेदनादिना विद्यमानस्य मरणस्य निषेधनम् । तदुक्तम्
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और जिससे प्राणीको कष्ट पहुँचता है वह वचन अप्रशस्त है भले ही वह सत्य हो । जैसे काने आदमीको काना कहना यद्यपि सत्य है तथापि पीड़ाकारक होनेसे वह असत्य में ही सम्मिलित है ||३७|
चार प्रकारके असत्य का उदाहरणपूर्वक निरूपण करके मन-वचन-कायसे उनका त्याग करने के लिए दो आर्या छन्द कहते हैं -
असत्यके चार भेद हैं- सत्का निषेध, असत्का उद्भावन, विपरीत और निन्द्य । चरमशरीरीके सिवाय अन्य कर्मभूमिया मनुष्योंका अकालमें मरण नहीं होता ऐसा कहना सत्प्रतिषेध नामक प्रथम असत्य है । पृथिवी, पर्वत, वृक्ष आदिको ईश्वरने बनाया है ऐसा कहना असत् उद्भावन नामक दूसरा असत्य है । गायको घोड़ा कहना विपरीत नामक तीसरा असत्य है | और निन्द्य नामक चतुर्थ असत्य के तीन भेद हैं- सावद्य, अप्रिय और गर्हित | यह चारों ही प्रकारका असत्य दोषरूपी सर्पोंके लिए वामीके समान है । अतः मन-वचनकायसे उसका त्याग करना चाहिए ||३८-३९ ।।
विशेषार्थ - 'असदभिधानमनृतम्' इस सूत्रका व्याख्यान करते हुए अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक ( ७|१४|५ ) में यह शंका उठायी है कि 'मिथ्याऽनृतम्' ऐसा लघु सूत्र क्यों नहीं बनाया? उसके समाधानमें कहा है कि मिथ्या शब्दका अर्थ विपरीत होता है । अतः ऐसा सूत्र बनाने से भूत (सत् ) निह्नव (निषेध) और अभूत (असत्) का उद्भावन ही झूठ कहलायेगा | जैसे आत्मा नहीं है, परलोक नहीं है या आत्मा चावलके बराबर या अँगूठेके पर्व बराबर है या सर्वव्यापक है । जो वचन विद्यमान अर्थका कथन करते हुए भी प्राणीको कष्टदायक होता है वह असत्य नहीं कहा जायेगा । किन्तु 'असत्' कहने से जितना भी अप्रशस्त वचन है वह सब असत्य कहा गया है । भगवती आराधनाकी विजयोदया टीका में 'असंत वयण' का अर्थ अशोभन वचन किया है और जिस वचनसे कर्मबन्ध हो उसे अशोभन कहा है । आचार्य पूज्यपाद और अकलंकने असत्का अर्थ अप्रशस्त किया है और अप्रशस्त तथा अशोभन एकार्थवाचक हैं। फिर भी उक्त दोनों आचार्योंने प्राणिपीड़ाकारक वचनको अप्रशस्त कहा है । और विजयोदया टीकाके कर्ताने कर्मबन्धके कारण वचनको अशोभन कहा है । उसमें आगे यह शंका उठायी है कि वचन आत्माका परिणाम नहीं है वह तों पुद्गल नामक द्रव्य है । अतः बन्ध अथवा बन्धस्थितिमें निमित्तभूत जो मिथ्यात्व असंयम,
१. भग. आ., ८२४-८३२ गा. ।
२. 'परिहर असंतवयणं सव्वं पि चदुव्विधं पयत्तेण ।
धत्तं पि संजयंतो भासादोसेण लिप्पदि हु ।' भ. आ. ८२३ गा. ।
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