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________________ चतुर्थ अध्याय २५१ आत्महिंसनहेतुत्वाद्धिसैवासूनृताद्यपि । भेदेन तद्विरत्युक्तिः पुनरज्ञानुकम्पया ॥३६॥ आत्मनो हिंसनं शुद्धपरिणामोपमर्दः स एव हेतुरस्य तद्भावात् प्रमत्तयोगकहेतुकत्वादित्यर्थः । उक्तं च 'आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥ [ पुरुषार्थ. ४२ ] ॥३६॥ अथ सत्यव्रतस्वरूपं निरूपयन्नाह अनृताद विरतिः सत्यव्रतं जगति पूजितम् । अनृतं त्वभिधानं स्याद् रागाद्यावेशतोऽसतः ॥३७॥ अनुतात्-असत्ययोग्यादात्मपरिणामात् तस्यैव कर्मबन्धनिबन्धनत्वेन वस्तुवृत्त्या परिहार्यत्वात, तन्निमित्तिकपौद्गलिकवचनस्य व्यवहारेणव परिहार्यत्वसमर्थनात् । असतः-अशोभनस्य कर्मबन्धनिमित्तवचनस्य इत्यर्थः ॥३७॥ __ केवल प्राणोंका घात ही हिंसा नहीं है किन्तु असत्य बोलना वगैरह भी हिंसा है क्योंकि उससे भी आत्मा की हिंसा होती है। फिर भी सत्य आदिका अहिंसासे पृथक कथन मन्दबुद्धि लोगों पर कृपाकी भावनासे किया गया है ॥३६॥ विशेषार्थ-हिंसाका लक्षण जो प्रमत्तयोगसे प्राणोंका घात कहा है वह झठ, चोरी. कुशील और परिग्रह इन सभी पापोंमें घटित होता है क्योंकि ये सभी पाप आत्माके शुद्ध परिणामोंके घातक हैं । आत्मामें किसी भी प्रकारका विकार भाव उसका घातक होता है। अतः विकार मात्र हिंसा है। झूठ बोलनेका भाव, परायी वस्तुको चुरानेका भाव, स्त्री भोगका भाव, धन-सम्पत्तिके अर्जन, संचय और संरक्षणका भाव ये सभी विकार भाव हैं। आत्माका इनसे घात होता है, आत्मा अपने शुद्ध परिणाम रूप स्वभावसे च्युत होकर अशुद्ध रूप परिणमन करता है उसका यह परिणमन ही हिंसा है। अतः विकार मात्र हिंसा है किन्तु मन्द बुद्धि लोग इसको नहीं समझते। इसीसे सत्यव्रत आदि चार व्रतोंका पृथक् कथन किया है। कहा भी है-'आत्माके परिणामोंके घातमें कारण होनेसे ये सभी हिंसा रूप हैं फिर भी असत्य वचन आदिका कथन शिष्योंको समझानेके उद्देश्यसे किया है' ॥३६॥ आगे सत्यव्रतका स्वरूप कहते हैं रागद्वेषरूप परिणामोंके आवेशसे अशोभनीय वचनोंके बोलनेको अनृत कहते हैं । उस अनृतके त्यागको सत्यव्रत कहते हैं। यह सत्यव्रत जगत्में पूजनीय है ॥३७॥ विशेषार्थ-जैनधर्म में प्रत्येक व्रत आत्मपरिणाम रूप है। अतः यहाँ अनृतसे असत्य वचन योगरूप आत्मपरिणाम लिया गया है क्योंकि वही कर्मबन्धमें निमित्त होनेसे वास्तव में त्यागने योग्य है। वचन वर्गणाके अवलम्बनसे वाक परिणामके अभिमुख आत्माके प्रदेशोंमें जो हलन-चलन होता है उसे वचन योग कहते हैं। उसके चार भेदोंमें-से एक भेद असत्य वचन योग है वही वस्तुतः त्यागने योग्य है। उस योगमें निमित्त जो पौद्गलिक वचन हैं व्यवहारसे ही उनके त्यागका समर्थन होता है । 'असत्' का अर्थ है अप्रशस्त, अशोभन । १. 'असदभिधानमनृतम्' ।-त. सू. ७.१४ । यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतं विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः ॥-पुरुषार्थ, ९१ श्लो.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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