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चतुर्थ अध्याय
२४५ मोहादैक्यमवस्यतः स्ववपुषा तन्नाशमप्यात्मनो,
नाशं संक्लिशितस्य दुःखमतुलं नित्यस्य यद्व्यतः । स्याद भिन्नस्य ततो भवत्यसुभृतस्तद्घोरदुःखं स्वव
ज्जानन् प्राणवधं परस्य समधीः कुर्यादकार्य कथम् ॥२९॥ मोहात्-आत्मदेहान्तरज्ञानाभावात् । अवस्यत:-निश्चिन्वतः । स्ववपुषा-स्वोपात्तशरीरेण सह आत्मनो नाशमवस्यत इत्येव । संक्लिश्यतः-देहद्वारप्रवृत्तव्याधिजरामरमादिभयादिना कलुषितचित्तस्य । द्रव्यत:-अर्थात्पर्यायतश्चानित्यस्य । स्याद्धिन्नस्य तत:-कथंचिद् लक्षणभेदान्निजदेहात् पृथग्भूतस्याशक्यविवेचनत्वाच्चाभिन्नस्य। ये तु जीवदेहावत्यन्तं ( -भिन्नौ मन्य- )न्ते तेषां देहविनाशेऽपि जीवविनाशाभावाद्धिसानुपपत्तेः कुतस्तन्निवृत्त्या प्राणिरक्षाप्रधानो धर्मः सिद्धयेत् । तदुक्तम्
'आत्मशरीरविभेदं वदन्ति ये सर्वथा गतविवेकाः।
कायवधे हन्त कथं तेषां संजायते हिंसा ॥'। ये च तयोरभेदैकान्तं मन्यन्ते तेषां कायविनाशे जीवस्यापि विनाशात् कथं परलोकार्थ धर्मानुष्ठानं १२ शोभते । तदप्युक्तम्
'जीववपुषोरभेदो येषामैकान्तिको मतः शास्त्रे ।
कायविनाशे तेषां जीवविनाशः कथं वार्यः ।।' [ ततो देहाद्भिन्नाभिन्न एवाहिंसालक्षणपरमधर्मसिद्धयर्थिभिरात्माऽभ्युपगन्तव्यः। तथात्मनः सर्वथा नित्यस्येव क्षणिकस्यापि हिंसा दुरुपपादा इति नित्यानित्यात्मक एव जीवे हिंसासंभवात्तद्विरतिलक्षणधर्माचरणाथिभिव्यरूपतया नित्यः पर्यायरूपतया चानित्यः प्रमाणप्रसिद्धो जीवः प्रतिपत्तव्यः । तथा चोक्तम्
१८ जोप्राणी आत्मा और शरीरका भेदज्ञान न होनेसे अपने शरीरके साथ अभेद मानता है और शरीरके नाशके साथ द्रव्यरूपसे नित्य तथा शरीरसे कथंचित् भिन्न भी आत्माका नाश मानता है अतएव जिसका चित्त शरीरके द्वारा होनेवाले रोगादिके कारण कलुषित रहता है उसे बहुत दुःख होता है। अपनी ही तरह दूसरोंके प्राणोंके घातको भी घोर दुःखका कारण जानकर समदर्शी मुमुक्षु कैसे हिंसारूप अकार्यको करेगा ? अर्थात् नहीं करेगा ||२९||
विशेषार्थ शरीर और जीव ये दोनों दो भिन्न द्रव्य हैं। शरीर पौद्गलिक है और जीव चेतन द्रव्य है। किन्तु दोनों इस तरहसे मिल गये हैं कि उनका भेद करना शक इसीलिए जीवको शरीरसे सर्वथा भिन्न न कहकर कथंचित् भिन्न कहा है। जो जीव और शरीरको अत्यन्त भिन्न मानते हैं उनके मतमें देहका विनाश होनेपर भी जीवका विनाश न होनेसे हिंसा ही सम्भव नहीं है तब हिंसाके त्याग पूर्वक होनेवाला प्राणिरक्षारूप धर्म कैसे सिद्ध हो सकेगा। कहा भी है
"विवेक शून्य जो अज्ञानी आत्मा और शरीर में सर्वथा भेद कहते हैं उनके यहाँ शरीरका घात होनेपर कैसे हिंसा हो सकती है यह खेदकी बात है। तथा जो शरीर और जीवमें सर्वथा अभेद मानते हैं उनके मतमें शरीरका विनाश होनेपर जीवका विनाश भी होनेसे कैसे परलोकके लिए धर्मका अनुष्ठान शोभित होता है ?' 'जिनके शास्त्र में जीव और शरीरका एकान्तसे भेद माना है उनके यहाँ शरीरका विनाश होनेपर जीवके विनाशको कैसे रोका जा सकता है ?
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