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________________ धर्मामृत ( अनगार) प्रमार्जनोत्तरकालं जीवाः सन्त्यत्र न सन्तीति वाप्रत्यवेक्षितं निक्षिप्यमाणमप्रत्यवेक्षितनिक्षेपः । तथा उपकरण भक्तपानसंयोजनभेदाद् द्विधा संयोगः । तत्र शीतस्य पुस्तकादेरातपातितप्तेन पिच्छादिना प्रमार्जनप्रच्छादनादि३ करण (-मपकरण-संयोजनम् । तथा सम्मर्छनासंभवे पानं पानेन पानं भोजनेन भोजनं पानेनेत्यादि संयं भक्तपानसंयोगः । तथा दुष्ट मनोवाक्कायप्रवृत्तिभेदान्निसर्गस्त्रिधेति । तथा चोक्तम् 'सहसानाभोगितदुःप्रमाजिताप्रेक्षणानि निक्षेपे। देहश्च 'दुष्टयुक्तस्तथोपकरणं च निवृत्तिः॥ संयोजनमुपकरणे पानाशनयोस्तथैव संयोगः । वचनमनस्तनवस्ता दुष्टा भेदा निसर्गस्य ॥ [ ] ॥२८॥ अथेदानीमात्मवत्परस्यापि प्राणव्यपरोपणमसह्यदुःखकारणमाकलयन सर्वत्र समदर्शी सर्वथा तत्परिहरतीति स्थितार्थोपसंहारार्थमाह उसके दो भेद हैं, मूलगुणनिवर्तना और उत्तरगुणनिर्वर्तना। शरीर वगैरहका इस प्रकार प्रयोग करना कि वह हिंसाका साधन बने मूलगुणनिर्वर्तना है। लकड़ी वगैरहमें चित्र आदि अंकित करना उत्तरगुणनिर्वर्तना है। निक्षेप नाम रखनेका है। उसके चार भेद हैं-सहसा निक्षेप, अनाभोगनिक्षेप, दुःप्रमृष्ट निक्षेप और अप्रत्यवेक्षित निक्षेप । भय आदिके वश पुस्तक आदि उपकरणोंको, शरीरको और मलमूत्र आदिको शीघ्र इस तरह निक्षेपण करना जिससे छह कायके जीवोंको बाधा पहँचे, उसे सहसा निक्षेप कहते हैं। जल्दी नहीं होनेपर भी 'जीव हैं या नहीं यह देखे बिना उपकरण आदि रखना अनाभोग निक्षेप है। दुष्टतापूर्वक पृथ्वी आदिकी सफाई करके उपकरण आदिका निक्षेप करना दुःप्रमृष्टनिक्षेप है। पृथिवी आदिकी सफाईके बाद भी जीव हैं या नहीं यह देखे बिना उपकरण आदिका रखना अप्रत्यवेक्षित निक्षेप है। संयोगके दो भेद हैं-उपकरण संयोग और भक्तपान संयोग । ठण्डे स्थानमें रखी हुई पुस्तक आदिका धूपसे गर्म हुई पीछी आदिसे प्रमार्जन करना या ढाँकना आदि उपकरण संयोग है । सम्मूर्च्छन जीवोंकी सम्भावना होनेपर पेयको पेयसे, पेयको भोजनसे, भोजनको भोजनसे, भोजनको पेयसे अर्थात् सचित्त-अचित्त भक्तपानको मिलाना भक्तपान संयोग है। निसर्गके भी तीन भेद हैं-दुष्ट मनकी प्रवृत्ति, दुष्ट वचनकी प्रवृत्ति और दुष्ट कायकी प्रवृत्ति। कहा भी है ____ 'परवस्तुके निमित्तसे जीवको थोड़ी-सी भी हिंसा नहीं लगती फिर भी परिणामोंकी निर्मलताके लिए हिंसाके घर जो परिग्रह आदि हैं उनका त्याग करना उचित है । आशय यह है कि परिणामोंकी अशुद्धताके बिना परवस्तुके निमित्त मात्रसे जीवको हिंसाका रंचमात्र भी दोष नहीं लगता। फिर भी परिणाम वस्तुका आलम्बन पाकर होते हैं। जैसे यदि बाह्य परिग्रह आदिका निमित्त होता है तो उसका आलम्बन पाकर कषायरूप परिणाम होते हैं। अतः परिणामोंकी विशुद्धिके लिए परिग्रह आदिका त्याग करना चाहिए' ।।२८॥ उक्त कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि अपनी तरह दूसरेके प्राणोंका घात भी असह्य दुःखका कारण है । ऐसा निश्चय करके सर्वत्र समदर्शी मुमुक्षु सर्वथा हिंसाका त्याग करता है । इसीका उपसंहार आगेके पद्यमें करते हैं १. दुःप्रयुक्त-भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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