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________________ २४२ धर्मामृत ( अनगार) परं जिनागमस्येदं रहस्यमवधार्यताम् । हिंसा रागाधुदुद्भतिरहिंसा तदनुद्भवः ॥२६॥ अवधार्यतां-निश्चलचेतसि निवेश्यताम् । उदुद्भूतिः-'प्रोपोत्समां पादपूरणे' इत्युदो द्वित्वम् ॥२६॥ अथ अष्टोत्तरशतप्रकारहिंसाकारणनिरासादहिंसकः स्यादित्यनुशास्ति कषायेत्यादि कषायोद्रेकतो योगैः कृतकारितसम्मतान् । स्यात् संरम्भ-समारम्भारम्भानुज्झन्नहिंसकः ॥२७॥ संरम्भः-प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः। समारम्भः-साध्याया हिंसादिक्रियायाः साधनानां समाहारः । आरम्भ:-संचितहिंसाधुपकरणस्याद्यः प्रक्रमः । तथा चोक्तम् 'संरभोऽकधिसंकल्पः समारम्भोऽधितापकः।। भिरारम्भः प्राणानां व्यपरोपकः ॥ [ तत्र क्रोधोदयात् कायेन कृतः कारितोऽनुमतश्चेति त्रयः संरम्भाः। एवं त्रयो मानावेशात्, त्रयो १२ मायोद्रेकात् त्रयश्च लोभोद्भवादिति द्वादश संरम्भाः। तद्वत्समारम्भा आरम्भाश्च द्वादशेति सर्वे मिलिताः षट् जिनागमका यह उत्कृष्ट सार अपने चित्तमें निश्चित रूपसे अंकित करें कि राग-द्वेष आदिकी उत्पत्ति हिंसा है और उसकी अनुत्पत्ति अहिंसा है ।।२६।। ___ आगे कहते हैं कि हिंसाके एक सौ आठ प्रकारके कारणोंको दूर करने पर ही अहिंसक होता है क्रोध आदि कषायोंके उदयसे मन-वचन-कायसे कृत कारित अनुमोदनासे युक्त संरम्भ, समारम्भ और आरम्भको छोड़नेवाला अहिंसक होता है ।।२७।। विशेषार्थ-प्राणोंके घात आदिमें प्रमादयुक्त होकर जो प्रयत्न किया जाता है उसे संरम्भ कहते हैं। साध्य हिंसा आदि क्रियाके साधनोंका अभ्यास करना समारम्भ है। एकत्र किये गये हिंसा आदिके साधनोंका प्रथम प्रयोग आरम्भ है । क्रोधके आवेशसे कायसे करना, कराना और अनुमोदना करना इस तरह संरम्भके तीन भेद हैं। इसी तरह मानके आवेशसे तीन भेद होते हैं, मायाके आवेशसे तीन भेद होते हैं और लोभके आवेशसे तीन भेद होते हैं। इस तरह संरम्भके बारह भेद हैं। इसी तरह बारह भेद समारम्भके और बारह भेद आरम्भके होनेसे सब मिलकर छत्तीस भेद होते हैं । छत्तीस ही भेद वचन सम्बन्धी होते हैं और छत्तीस ही भेद मन सम्बन्धी होते हैं। ये सब मिलकर जीवाधिकरणरूप आस्रवके १०८ भेद होते हैं। ये सब हिंसाके कारण हैं। आशय यह है कि मूल वस्तु सरम्भ, समारम्भ, आरम्भ है । ये तीन मनसे, वचनसे और कायसे होते हैं इसलिए प्रत्येकके तीनतीन प्रकार हैं। इन तीन-तीन प्रकारोंमें-से भी प्रत्येकके कृत, कारित, अनुमोदनाकी अपेक्षासे तीन-तीन भेद होते हैं। स्वयं करना कृत है, दूसरेसे कराना कारित है। कोई करता हो तो उसकी सराहना करना अनुमोदना है। इस प्रकार संरम्भ, समारभ और आरम्भके नौ प्रकार होते हैं। इन नौ प्रकारोंमें-से भी चार कषायोंकी अपेक्षा प्रत्येकके चार-चार भेद होते हैं। १. रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्त त्ति भासिदं समये । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसे त्ति जिणेहि णिहिट्ठा ।।-सर्वार्थ. ७।२२ में उद्धृत । २. आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः । -तत्त्वा. सू. ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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