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चतुर्थ अध्याय
क्यमुपयोगः समुपयाति रागादिभिः
स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम् ॥ [ समय. कलश १६४ ]
यदि पुनः शुद्धपरिणामवतोऽपि जीवस्य स्वशरीरनिमित्तान्यप्राणिप्राणवियोगमात्रेण वधः स्यान्न कस्यचिन्मुक्तिः स्याद् योगिनामपि वायुकायिकादिवधनिमित्तसद्भावात् । तथा चाभाणि - 'जइ सुद्धस्स य बंधो होदि हि बहिरंगवत्थु जोगेण । णाम बादरकायादिवधदू | '
अहं
भ. आरा ८०६ गा. ]
एतदेवाह -
दु
तत्त्वज्ञानबलाद् रागद्वेषमोहानपोहतः ।
समितस्य न बन्धः स्याद् गुप्तस्य तु विशेषतः ॥२५॥
अपोहत :- निवर्तयतः ॥ २५ ॥
अथ रागाद्युत्पत्त्यनुत्पत्ती हिसाहिसे इति जिनागमरहस्यतया विनिश्चाययति -
घात ही बन्धका कारण है । किन्तु यह जो आत्मा रागादिके साथ एकताको प्राप्त होता है यही जीवोंके बन्धका कारण है ।'
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जैसे कोई मनुष्य शरीरमें तेल लगाकर धूलभरी भूमि में शस्त्र-संचालनका अभ्यास करते हुए अनेक वृक्षों को काटता है और धूलसे लिप्त होता है । अब विचारना चाहिए कि उसके धूल से लिप्त होने का कारण क्या है ? धूलभरी भूमि तो उसका कारण नहीं है । यदि वह हो तो शरीर में तेल लगाये बिना जो उसमें व्यायाम करते हैं उनका शरीर भी धूलसे लिप्त होना चाहिए। इसी तरह शस्त्राभ्यास भी उसका कारण नहीं है और न वृक्षोंका छेदन-भेदन करने से ही धूल चिपटती है । किन्तु उसके शरीर में लगे तेलके ही कारण उससे धूल चिपटती है । इसी तरह मिध्यादृष्टि जीव रागादि भावोंसे लिप्त होकर कर्मपुद्गलोंसे भरे लोक में मनवचन-कायकी क्रिया करते हुए अनेक उपकरणोंसे सचित्त-अचित्त वस्तुका घात करता है और कर्मसे बँधता है । यहाँ विचारणीय है कि बन्धका कारण क्या है ? कर्मपुद्गलोंसे भरा लोक तो बन्धका कारण नहीं है । यदि हो तो सिद्धोंके भी बन्ध होगा । मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिरूप योग भी बन्धका कारण नहीं है। यदि हो तो यथाख्यात चारित्रके धारकों को भी बन्धका प्रसंग आयेगा | अनेक प्रकारकी इन्द्रियाँ भी बन्धका कारण नहीं हैं । यदि हों तो केवलज्ञानियोंके भी बन्धका प्रसंग आयेगा । सचित्त-अचित्त वस्तुका घात भी बन्धका कारण नहीं है । यदि हो तो समिति में तत्पर मुनियों को भी बन्ध होगा । अतः बन्धका कारण रागादि ही है । यदि शुद्ध परिणामवाले जीवके अपने शरीर के निमित्त से होनेवाले अन्य प्राणिके घात मात्र से बन्ध होना माना जाये तो किसीकी मुक्ति नहीं हो सकती; क्योंकि योगियोंके श्वास लेनेसे भी वायुकायिक जीवोंका घात होता है। कहा भी है- 'यदि बाह्य वस्तुके योगसे शुद्ध परिणाम वाले जीवके भी बन्ध होवे तो कोई भी अहिंसक नहीं हो सकता; क्योंकि शुद्ध योगीके भी श्वास के निमित्तसे वायुकाय आदि जीवोंका बध होता है ||२४||
यही बात कहते हैं
तत्त्वज्ञानके बलसे राग-द्वेष और मोहको दूर करनेवाले और समिति के पालक मुनिराज बन्ध नहीं होता और गुप्ति के पालक के तो विशेषरूपसे बन्ध नहीं होता ||२५|| रागादिकी उत्पत्ति हिंसा है और अनुत्पत्ति अहिंसा है यह जिनागमका परम रहस्य है ऐसा निश्चय करते हैं
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