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तृतीय अध्याय
२०७ अङ्गप्रविष्टं आचारादिद्वादशभेदं वचनात्मकं द्रव्यश्रुतम् । अङ्गबाह्यं सामायिकादिचतुर्दशभेदं प्रकीर्णकश्रुतम् । तत्प्रपञ्चोऽपि प्रवचनाच्चिन्त्यः ॥६॥ अथ श्रुतोपयोगविधिमाह
तीर्थादाम्नाय निध्याय युक्त्याऽन्तः प्रणिधाय च ।
श्रुतं व्यवस्येत् सद्विश्वमनेकान्तात्मक सुधीः ॥७॥ तीर्थात्-उपाध्यायात् । आम्नाय-गृहीत्वा। निध्याय-अवलोक्य । युक्त्या हेतुना सा हि ६ अपक्षपातिनी । तदुक्तम्
'इते युक्ति यदेवात्र तदेव परमार्थसत्।
यद्भानुदीप्तिवत्तस्याः पक्षपातोऽस्ति न क्वचित् ।।' [ सोम. उपा. १३ श्लो.] अन्तःप्रणिधाय-स्वात्मन्यारोप्य । व्यवस्येत्-निश्चिनुयात् । सत्-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् । अनेकान्तात्मकं-द्रव्यपर्यायस्वभावम् श्रुतं खलु अविशदतया समस्तं प्रकाशयेत् । तदुक्तम्
द्रव्यश्रुतके दो भेद हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंगप्रविष्टके बारह भेद हैंआचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्या-प्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तःकृद्दश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। दृष्टिवादके पाँच भेद हैंपरिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। पूर्वगतके चौदह भेद हैं-उत्पाद पूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुप्रवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल
और लोकविन्दुसार। अंगबाह्यके अनेक भेद हैं। वक्ताके भेदसे ये भेद जानना चाहिए । वक्ता तीन हैं-सर्वज्ञ तीर्थंकर, श्रुतकेवली और आरातीय । भगवान् सर्वज्ञ देवने केवलज्ञानके द्वारा अर्थरूप आगमका उपदेश दिया। वे प्रत्यक्षदर्शी और वीतराग थे अतः प्रमाण थे। उनके साक्षात् शिष्य गणधर श्रुतकेवलियोंने भगवान्की वाणीको स्मरणमें रखकर जो अंग पूर्व ग्रन्थोंकी रचना की वह भी प्रमाण है। उसके बाद आरातीय आचार्योंने कालदोषसे अल्पमति अल्पायु शिष्योंके कल्याणार्थ जो ग्रन्थ रचे वे अंगबाह्य हैं । वे भी प्रमाण हैं क्योंकि अर्थरूपसे तो वे भी वही हैं। क्षीर समुद्रके जलको घरमें भरनेसे जल तो वही रहता है। उसी तरह जानना ॥६॥
श्रुतके उपयोगकी विधि कहते हैं
बुद्धिशाली मुमुक्षुको गुरुसे श्रुतको ग्रहण करके तथा युक्तिसे परीक्षण करके और उसे स्वात्मामें निश्चल रूपसे आरोपित करके अनेकान्तात्मक अर्थात द्रव्यपर्यायरूप और उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक विश्वका निश्चय करना चाहिए ॥७॥
विशेषार्थ-श्रुतज्ञान प्राप्त करनेकी यह विधि है कि शाखको गुरुमुखसे सुना जाये या पढ़ा जाये। गुरु अर्थात् शास्त्रज्ञ जिसने स्वयं गुरुमुखसे शास्त्राध्ययन किया हो। गुरुकी सहायताके बिना स्वयं स्वाध्यायपूर्वक प्राप्त किया श्रुतज्ञान कभी-कभी गलत भी हो जाता है। शास्त्रज्ञान प्राप्त करके युक्तिसे उसका परीक्षण भी करना चाहिए। कहा भी है कि 'इस लोकमें जो युक्तिसम्मत है वही परमार्थ सत् है । क्योंकि सूर्यकी किरणों के समान युक्तिका किसीके भी साथ पक्षपात नहीं है। जैसे सब अनेकान्तात्मक है सत होनेसे। जो सत नहीं है वह अनेकान्तात्मक नहीं है जैसे आकाशका फूल । इसके बाद उस श्रुतको अपने अन्तस्तल में उतारना चाहिए । गुरुमुखसे पढ़कर और युक्तिसे परीक्षण करके भी यदि उसपर अन्तस्तलसे
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