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________________ २०६ धर्मामृत ( अनगार) परिमाणप्रागक्षरश्रतज्ञानात्पर्यायसमासोऽभिधीयते । अक्षरश्रुतज्ञानं तु एकाकाराद्यक्षराभिधेयावगमरूपं श्रुतज्ञान संख्येयभागमात्रम् । तस्योपरिष्टादक्षरसमासोऽक्षरवृद्धया वर्धमानो द्विश्यादक्षरावबोधस्वभावः पदावबोधात् ३ पुरस्तात् । एवं पदपदसमासादयोऽपि भावश्रुतभेदाः पूर्वसमासान्ता विंशतिर्यथागममधिगन्तव्याः । है। इस मध्यम पद श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरके बढ़नेपर पद समास नामक श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक-एक अक्षरकी वृद्धिसे बढ़ता हुआ पद समास श्रुतज्ञान एक अक्षरसे न्यून संघात श्रुतज्ञानके प्राप्त होनेतक जाता है। पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर संघात नामक श्रुतज्ञान होता है। इस तरह संख्यात पदोंको मिलाकर एक संघात श्रुतज्ञान होता है। यह मार्गणा ज्ञानका अवयवभूत ज्ञान है। पुनः संघात श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर संघात समास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक-एक अक्षरकी वृद्धिके क्रमसे बढ़ता हुआ एक अक्षरसे न्यून गतिमार्गणाविषयक ज्ञानके प्राप्त होने तक संघात समास श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता है। अनुयोग द्वारके जितने अधिकार होते हैं उनमें से एक अधिकारकी प्रतिपत्ति संज्ञा है और एक अक्षरसे न्यून सब अधिकारों की प्रतिपत्ति समास संज्ञा है। प्रतिपत्तिके जितने अधिकार होते हैं उनमें से एक-एक अधिकारकी संघात संज्ञा है और एक अक्षर न्यन सब अधिकारोंकी संघात समास संज्ञा है। इसका सब जगह कथन करना चाहिए। पुनः प्रतिपत्तिश्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्रतिपत्ति समास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक-एक अक्षरकी वृद्धिके क्रमसे बढ़ता हुआ एक अक्षरसे न्यून अनुयोगद्वार श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक प्रतिपत्ति समास श्रुतज्ञान होता है। पुनः उसमें एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान होता है। अनुयोगद्वार श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर अनुयोगद्वार समास नामक श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक अनुयोगद्वार समास श्रुतज्ञान होता है। पुनः उसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान होता है। पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृतप्राभृत समास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यन प्राभृत श्रुतज्ञानके प्राप्त होनेतक प्राभृत प्राभृत समास श्रुतज्ञान होता है। पुनः उसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृत श्रुतज्ञान होता है । इस तरह संख्यातप्राभृत प्राभृतोंका एक प्राभृत श्रुतज्ञान होता है। इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृत समास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून वस्तु श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक प्राभृत समास श्रुतज्ञान होता है । पुनः उसमें एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तु श्रुतज्ञान होता है । इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तु समास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून पूर्व श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक वस्तु समास श्रुतज्ञान होता है। उसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्व श्रुतज्ञान होता है। पूर्वगतके जो उत्पाद पूर्व आदि चौदह अधिकार हैं उनकी अलग-अलग पूर्व श्रुतज्ञान संज्ञा है। इस उत्पाद पूर्व श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्व समास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य रूप सकल श्रुतज्ञानके सब अक्षरोंकी वृद्धि होने तक पूर्वसमास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार भावश्रुतके बीस भेद होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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