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तृतीय अध्याय
'विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः ।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥' [ रत्न. श्रा ३२ ]
इति प्रथमं सम्यक्त्वमाराध्येदानीं सम्यग्ज्ञानाराधनां प्राप्नोति । तत्र तावत् परमज्ञानप्राप्त्युपाय- 3 भूतत्वाच्छ्रुतस्य तदाराधनायां मुमुक्षून्नियुङ्क्ते -
सद्दर्शन ब्राह्ममुहूर्त दृप्यन्मनः प्रसादास्तमसां लवित्रम् ।
भक्तुं परं ब्रह्म भजन्तु शब्दब्रह्माञ्जसं नित्यमथात्मनीनाः ॥ १ ॥
ब्राह्ममुहूर्तं :- पञ्चदशमुहूर्ताया रात्रश्चतुर्दशो मुहूर्तः । स च चित्तकालुष्यापसारणद्वारेण संदेहादिच्छेदाद्यथा ( बुद्धिमुद्बोधयन् प्रसिद्धः । यन्नीतिः - ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थायेतिकर्तव्यतायां समाधिमुपेयात् । सुखनिद्राप्रसन्ने हि मनसि प्रतिफलन्ति यथार्था ) बुद्धय इति । दृप्यन् — उत्कटीभवन् । परं ब्रह्म - शुद्धचिद्रूपं स्वात्मस्वरूपम् । तद्धि शब्दब्रह्मभावनावष्टम्भादेव सम्यग्द्रष्टुं शक्यते । तथा चोक्तम्
रत्नकरण्ड श्रावकाचार ( इलो. ३२ में ) कहा है- 'बीजके अभाव में वृक्षकी तरह सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान और चारित्रकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलकी उत्पत्ति नहीं होती ।'
इस आचार्यवचनके अनुसार सर्वप्रथम सम्यक्त्वकी आराधना करके अब समयज्ञानकी आराधना प्रस्तुत करते हैं । उनमें श्रुतज्ञान उत्कृष्ट केवलज्ञानकी प्राप्ति के लिए उपायभूत है इसलिए मुमुक्षुओं को श्रुतज्ञानकी आराधनामें लगाते हैं—
सम्यग्दर्शनकी आराधना के पश्चात् जिनके मनकी निर्मलता सम्यग्दर्शनरूपी ब्राह्म मुहूर्तसे उद्बुद्ध हो गयी है, उन आत्माका हित चाहनेवाले मुमुक्षुओंको, मोहनीय और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्मका नाश करनेवाले परब्रह्म - शुद्ध चित्स्वरूप की आराधना करनेके लिए नित्य पारमार्थिक शब्द ब्रह्म - श्रुतज्ञानकी आराधना करनी चाहिए ||१||
विशेषार्थ - सम्यग्दर्शनको ब्राह्म मुहूर्तकी उपमा दी है । पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि के चौदहवें मुहूर्तको ब्राह्म मुहूर्त कहते हैं । मुहूर्त अर्थात् दो घटिका । वह समय चित्तकी कलुषताको दूर करके सन्देह आदिको हटाते हुए यथार्थ बुद्धिको जाग्रत् करता है यह बात प्रसिद्ध है । कहा भी है
'ब्राह्म मुहूर्त में उठकर नित्यकृत्य करके ध्यान लगावे । सुखपूर्वक निद्रासे मनके प्रसन्न होने पर यथार्थबुद्धि प्रस्फुटित होती है ।' यतः ब्राह्म मुहूर्तकी तरह सम्यग्दर्शन भी चित्तकी प्रसन्नताका – निर्मलताका हेतु है । अतः सम्यग्दर्शनकी आराधना के पश्चात् श्रुतज्ञानकी आराधना करनी चाहिए। क्योंकि श्रुतज्ञानकी आराधना ही समस्त पुरुषार्थकी सिद्धिका सबसे प्रधान उपाय है। श्रुतज्ञान ही स्वात्म्य के अभिमुख संवित्तिरूप है । कहा भी है- 'पहले १. भ. कु. च. टी. । २. नीतिवाक्यामृत ।
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