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द्वितीय अध्याय
१८३
भूयोऽपि भङ्गयन्तरेणाह
भारयित्वा पटीयांसमप्यज्ञानविषेण ये।
विचेष्टयन्ति संचक्ष्यास्ते क्षुद्राः क्षुद्रमंत्रिवत् ॥१९॥ भारयित्वा-विकलीकृत्य । पटीयांसं-तत्त्ववेत्तारमदृष्टपूर्व च । विचेष्टयन्ति–विरुद्धं वर्तयन्ति । संवक्ष्याः -वर्जनीयाः । क्षुद्रा:-मिथ्योपदेष्टारो दुर्जनाः । क्षुद्रमन्त्रिवत्-दुष्टगारुडिका यथा ॥९९।। अथ मिथ्याचारित्राख्यमनायतनं प्रतिक्षिपति
रागाद्यैर्वा विषाद्यैर्वा न हन्यादात्मवत् परम् ।
ध्रुवं हि प्राग्वधेऽनन्तं दुःखं भाज्यमुदग्वधे ॥१००॥ प्राग्वधे-रागद्वेषादिभिरात्मनः परस्य च घाते। भाज्यं-विकल्पनीयम् । उदग्वधे-विषशस्त्रा- ४९ दिभिः स्वपरयोर्धाते । अयमभिप्रायः विषादिभिर्हन्यमानोऽपि यदि पञ्चनमस्कारमनाः स्यात्तदा नानन्तदुःखभागभवति अन्यथा भवत्येवेति ॥१०॥
पुनः प्रकारान्तरसे उसी बातको कहते हैं
जैसे सर्पके विषको दूर करनेका ढोंग रचनेवाले दुष्ट मान्त्रिक जिसे साँपने नहीं काटा है ऐसे व्यक्तिको भी विषसे मोहित करके कुचेष्टाएँ कराते हैं, उसी तरह मिथ्या उपदेश देनेवाले दुष्ट पुरुष तत्त्वोंके जानकारको भी मिथ्याज्ञानसे विमूढ़ करके उनसे विरुद्ध व्यवहार कराते हैं। अतः सम्यक्त्वके आराधकोंको उनसे दूर रहना चाहिए ।।१९।।
विशेषार्थ-आचार्य सोमदेवने भी कहा है-बौद्ध, नास्तिक, याज्ञिक, जटाधारी तपस्वी और आजीवक आदि सम्प्रदायके साधुओंके साथ निवास, बातचीत और उनकी सेवा वगैरह नहीं करना चाहिए। तत्त्वोंसे अनजान और दुराग्रही मनुष्योंके साथ वार्तालाप करनेसे लड़ाई ही होती है जिसमें डण्डा-डण्डी और झोंटा-झोंटी तककी नौबत आ जाती है ॥१९॥
आगे मिथ्याचारित्र नामक अनायतनका निषेध करते है
मिथ्याचारित्र नामक अनायतनको त्यागनेके इच्छुक सम्यग्दृष्टिको मोहोदयजन्य रागादि विकारोंसे तथा विष, शस्त्र, जल, अग्निप्रवेश आदिसे अपना और दूसरोंका घात नहीं करना चाहिए; क्योंकि रागादिसे घात करनेमें तो निश्चय ही अनन्त दुख मिलता है किन्तु विषादिसे घात करनेपर अनन्त दुःख हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता ॥१०॥
विशेषार्थ-तात्पर्य यह है कि रागादिरूप परिणतिके द्वारा अपने या दूसरोंके विशुद्ध परिणामस्वरूप साम्यभावका घात करनेवालेके भाव मिथ्याचारित्र रूप अनायतनकी सेवासे सम्यक्त्व मलिन होता है। और विषादिके द्वारा अपना या परका घात करनेवाला द्रव्य मिथ्याचारित्रका सेवी होता है । आशय यह है कि हिंसाके दो प्रकार हैं-भावहिंसा और द्रव्यहिंसा। पहले प्रकारकी हिंसा भावहिंसा है और दूसरे प्रकारकी हिंसा द्रव्य हिंसा है। जैनधर्ममें भाव हिंसाको ही हिंसा माना है। चाहे द्रव्यहिंसा हुई हो या न हुई हो । जहाँ भावमें हिंसा वहाँ अवश्य ही हिंसा है। किन्तु द्रव्यहिंसा होनेपर भी यदि भावमें हिंसा नहीं है तो हिंसा नहीं है । अतः रागादिरूप परिणाम होने पर आत्माके विशुद्ध परिणामोंका घात होनेसे हिंसा अवश्य है और इसलिए उसका फल अनन्त दुःख अवश्य भोगना पड़ता है। किन्तु द्रव्यहिंसामें ऐसी नियामकता नहीं है । कदाचित् विष खाकर मरनेवाला आदमी
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