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धर्मामृत (अनगार )
'कापथे पथि दुःखानां कापस्थेऽप्यसम्मतिः । असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते । [ रत्न. श्रा. १४ ] ॥९६॥
अथ मिथ्याज्ञानिभिः संपर्क व्यपोहति -
विद्वान विद्याशाकिन्याः क्रूरं रोद्धुमुपप्लवम् । निरुन्ध्यादपराध्यन्तीं प्रज्ञां सर्वत्र सर्वदा ॥९७॥ कुहेतुनयदृष्टान्तगरलोद्गारदारुणः । आचार्यव्यञ्जनैः सङ्गं भुजङ्गेर्जातु न व्रजेत् ॥९८॥ व्यञ्जनं विषः । उक्तं च
'शाक्य नास्तिकयागज्ञजटिलाजीवकादिभिः । सहावासं सहालापं तत्सेवां च विवर्जयेत् ॥'
अज्ञाततत्त्वचेतोभिर्दुराग्रहमलीमसैः ।
युद्धमेव भवेद् गोष्ठयां दण्डादण्डि कचाकचि ॥ [ सोम. उपा. ८०४-८०५ श्लो. ]
कार्य करने लगे वे भट्टारक कहलाये । ग्रन्थकारने लिखा है कि वे म्लेच्छोंके समान आचरण करते हैं इससे ज्ञात होता है कि उनका आचरण बहुत गिर गया था । उन्होंने एक श्लोक भी उद्धृत किया है - जिसमें कहा है
'चरित्रभ्रष्ट पण्डितोंने और बनावटी तपस्वियोंने जिनचन्द्रके निर्मल शासनको मलिन कर दिया ।'
सम्यग्दृष्टि को ऐसे वेषी जैन साधुओंसे भी मन-वचन-काय से दूर रहने की प्रेरणा की है क्योंकि ऐसा न करनेसे सम्यग्दर्शन के अमूढदृष्टि नामक अंगको क्षति पहुँचती है। उसका स्वरूप इस प्रकार है
दुःखोंके मार्ग कुमार्ग की और कुमार्ग में चलनेवालोंकी मनसे सराहना न करना, कायसे संसर्ग न रखना और वचनसे प्रशंसा न करना अमूढदृष्टि अंग कहा जाता है ।
दूसरे मतवालोंने भी ऐसे साधुओंसे दूर रहने की प्रेरणा की है
'खोटे कर्म करनेवाले, बिलाव के समान व्रत धारण करनेवाले, ठग, बगुला भगत तथा किसी हेतुसे साधु बननेवाले साधुओंका वचन मात्रसे भी आदर नहीं करना चाहिए ।'
मिथ्याज्ञान नामक अनायतनको छुड़ाते हैं
त्रिकालवर्ती विषयोंके अर्थको जाननेवाली बुद्धिको प्रज्ञा कहते हैं। उसका काम है कि वह अविद्यारूपी पिशाचिनीके क्रूर उपद्रवोंको सर्वत्र सर्वदा रोके अर्थात् ज्ञानका प्रचार करे । यदि वह ऐसा न करे और विमूढ़ हो जाये तो विद्वान्को उसका निवारण करना चाहिए ||१७|| मिथ्याज्ञानियोंसे सम्पर्कका निषेध करते हैं
खोटे हेतु नय और दृष्टान्तरूपी विषको उगलनेके कारण भयानक आचार्य वेषधारी सर्पों या दुष्टोंके साथ कभी भी नहीं रहना चाहिए अर्थात् खोटी युक्तियों, खोटे नयों और खोटे दृष्टान्तोंके द्वारा मिथ्या पक्षको सिद्ध करनेवाले गुरुओं से भी दूर रहना चाहिए ॥९८॥ १. पण्डितै भ्रष्टचारित्रैर्बठ रैश्च तपोधनैः ।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ २. पाखण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालव्रतिकान् शठान् । हेतुकान् बकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ॥
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