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________________ ३ १८० धर्मामृत ( अनगार) अथ पूजामदकर्तुर्दोषं दर्शयतिस्वे वर्गे सकले प्रमाणमहमित्येतत्कियद्यावता, पौरा जानपदाश्च सन्त्यपि मम श्वासेन सर्वे सदा। यत्र क्वाप्युत यामि तत्र सपुरस्कारां लभे सक्रिया मित्यर्चामदमूर्णनाभवदधस्तन्तुं वितन्वन् पतेत् ॥१४॥ यावता-येन कारणेन । श्वसन्ति-मदेकायत्तास्तिष्ठन्तीत्यर्थः । ऊर्णनाभवत्-कौलिको यथा । तन्तुं-लालास्वरूपम् ।।९४॥ अथैवं प्रसङ्गायातः सार्मिकान् प्रति जात्यादिमदैः सह मिथ्यात्वाख्यमनायतनं त्याज्यतया प्रकाश्य , साम्प्रतं तद्वतः सप्त त्याज्यतया प्रकाशयति सम्यक्त्वादिषु सिद्धिसाधनतया त्रिष्वेव सिद्धेषु ये, रोचन्ते न तथैकशस्त्रय इमे ये च द्विशस्ते त्रयः । यश्च त्रीण्यपि सोऽप्यमी शुभदृशा सप्तापि मिथ्याश स्त्याज्या खण्डयितुं प्रचण्डमतयः सदृष्टिसम्राटपदम् ॥२५॥ त्रिष्वेव-समुदितेषु न व्यस्तेषु । सिद्धेषु-आगमे निर्णीतेषु । तथा-सिद्धिसाधनताप्रकारेण । एकशः--एकैकं कर्मतापन्नम् । तथाहि-कश्चित् सम्यक्त्वज्ञाने मोक्षमार्ग मन्यते न चारित्रम्, अन्यः सम्यक्त्वचरित्रे न ज्ञानम्, अन्यतरो ज्ञानचारित्रे न सम्यक्त्वमेवमुतरत्रापि चिन्त्यम् । द्विशः-द्वे द्वे सिद्धिसाधनतया न रोचन्ते । मिथ्यादृशः। उक्तं च अपने मस्तकपर धारण करूँ, इस प्रकार मोहरूपी दैत्य न केवल चारित्रको किन्तु सम्यग्दशनको भी नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। अर्थात् तपस्वी भी तप का मद करके भ्रष्ट होते हैं ।।१३।। पूजाका मद करनेवालेके दोष दिखलाते हैं मैं अपने समस्त सजातीय समूहमें प्रमाण माना जाता हूँ, इतना ही नहीं, किन्तु सब नगरवासी और देशवासी सदा मेरे श्वासके साथ श्वास लेते हैं, उनका जीवन मेरे अधीन है, जहाँ कहीं भी मैं जाता हूँ वहाँ पुरस्कारपूर्वक सत्कार पाता हूँ इस प्रकारका पूजाका मद मकड़ीके समान अपना जाल फैलाता हुआ अधःपतन करता है ॥९४॥ इस प्रकार साधर्मियोंके प्रति प्रसंग प्राप्त जाति आदि आठ मदों के साथ मिथ्यात्व नामक अनायतनको त्यागने योग्य बतलाकर आगे सात प्रकारके मिथ्यादृष्टियोंको त्याज्य बतलाते हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तोनों ही मोक्षके कारण हैं यह आगमसे निर्णीत है । इनमें से जो एक-एकको मोक्षका कारण नहीं मानते ऐसे तीन, जो दोदोको मोक्षका कारण नहीं मानते ऐसे तीन और जो तीनोंको ही मोक्षका कारण नहीं मानता ऐसा एक, इस तरह सम्यग्दर्शनरूपी चक्रवर्ती पदका खण्डन करनेके लिए उसके प्रभाव और स्वरूपको दूषित करनेके लिए ये सातों ही मिथ्यादृष्टि बड़े दक्ष होते हैं । सम्यग्दृष्टिको इनसे दूर ही रहना चाहिए ॥१५॥ विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों ही मोक्षके कारण हैं। जो इनमें से एकको या दोको या तीनोंको ही स्वीकार नहीं करते वे मिथ्यादृष्टि हैं । इस तरह मिथ्यादृष्टिके सात भेद हो जाते हैं-सम्यग्दर्शनको न माननेवाला एक, सम्यग्ज्ञानको न माननेवाला दो, सम्यक चारित्रको न माननेवाला तीन, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानको न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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