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________________ द्वितीय अध्याय शिल्पं-पत्रच्छेदादि करकौशलम् । मदुपक्रम-मया प्रथमारब्धम् । अवधानानि-युगपत्पाठगीतनत्यादिविषयावधारणानि । यल्लोके 'व्यावृत्तं प्रकृतं वियद् विलिखितं पृष्ठापितं व्याकृतं मात्राशेषममात्रमङ्कशबलं तत्सर्वतो भद्रवत् । यः शक्तो युगपद् ग्रहीतुमखिलं काव्ये च संचारयन् वाचं सूक्तिसहस्रभङ्गिसुभगां गृह्णातु पत्रं स मे ॥' [ महः-शिल्पादिज्ञानाख्यतेजः ॥९१॥ अथ कुलीनस्य बलमददुर्लक्षतां लक्षयतिशाकिन्या हरिमाययाभिचरितान् पार्थः किलास्थविद्वषो, वीरोदाहरणं वरं स न पुना रामः स्वयं कूटकृत् । इत्यास्थानकथाप्रसंगलहरीहेलाभिरुत्प्लावितो, हत्क्रोडाल्लयमेति दोःपरिमलः कस्यापि जिह्वाञ्चले ॥१२॥ अभिचारितान्-उपतप्तान् । आस्थत्-निराकृतवान् । द्विषः-कौरवान् । वीरोदाहरणं-अर्जु- र नेन सदृशा इमे वीरा इत्यस्तु। कूटकृत्-बालिवधादिप्रस्तावे कथाप्रसङ्गः वार्ता । लयं-अलक्ष्यत्वम् । दोःपरिमल:-लक्षणया भुजवीर्यम् । कस्यापि कुलीनस्य पुंसः ॥१२॥ अथ तपोमदस्य दुर्जयत्वं व्यनक्तिकर्मारिक्षयकारणं तप इति ज्ञात्वा तपस्तप्यते, ___कोऽप्येतहि यदोह तहि विधयाकांक्षा पुरो धावति । अप्येकं दिनमीदृशस्य तपसो जानीत यस्तत्पद द्वन्द्वं मूनि वहेयमित्यपि दृशं मथनाति मोहासुरः ॥१३॥ तप्यते-अर्जयति । एतर्हि-एतस्मिन् काले। इह-अस्मिन् क्षेत्रे । ईदृशस्य-मया निरीहतया .. विधीयमानेन तपसा सदृशस्य । जानीत-ईदृशं तपश्चरितुं प्रवर्तत इत्यर्थः । 'ज्ञाः स्वार्थे करण' इति षष्ठी। २१ वहेयं-वोढव्यं मया इत्यर्थः ॥१३॥ राजाओंके मनको दूसरा कौन व्यक्ति मेरे समान आकृष्ट कर सकता है, खेद है कि इस प्रकार आज प्रायः पुरुषोंका शिल्प आदिका ज्ञानरूप तेज भी अन्धकाररूप हो रहा है ॥२१॥ आगे कहते हैं कि कुलीन पुरुष बल का मद नहीं करता ऐसा सुना जाता है कि शाकिनीके समान विष्णुकी मायासे मोहित हुए कौरव-शत्रुओंको अर्जुनने मारा। अतः वीरोंके उदाहरणके रूपमें अर्जुन ही श्रेष्ठ है, रामचन्द्र नहीं, क्योंकि उन्होंने बालिके वध में छलसे काम लिया था। इस प्रकार जनसमुदाय में जब कभी उठनेवाले कथाप्रसंगरूपी लहरोंसे अन्तस्तलसे ऊपर उठा वीरोंकी बाहुओंका सौरभ किसी भी कुलीनकी जिह्वाके अग्र भागमें आकर विलीन हो जाता है अर्थात् वह अपने मुखसे अपनी वीरताका गुणगान नहीं करता। और दूसरोंके मुखसे सुनकर भी उधर कान नहीं देता ।।१२।। तप का मद दुर्जय है यह स्पष्ट करते हैं इस क्षेत्र और इस कालमें यदि कोई 'तप, मोह आदि शत्रओंके विनाशका कारण है' यह जानकर भी तप करता है तो विषयोंकी चाह आगे दौड़ती है। मेरे समान निरीह होकर किये जानेवाले तपके समान तप यदि कोई एक दिन भी कर सके तो मैं उसके दोनों चरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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