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प्रस्तावना
है । श्वे. साधु वस्त्र के सिवाय भी कम्बल, पात्र, पायपुंछन आदि अनेक उपकरण रखते हैं। दि. साहित्यमें इन सबकी कोई चर्चा नहीं है क्योंकि दि. साधुके लिए ये सब अनावश्यक हैं।
श्वे. साधु श्रावकोंसे पीठफलक, तख्ता, चटाई आदि उपयोगके लिए लेते हैं । उपयोग होने पर लौटा देते हैं। उनमें भी शयनके लिए घास, पत्थर या लकड़ीका तख्ता श्रेष्ठ कहा है। साधुको घास पर अच्छी तरह जीव जन्तु देखकर ही सावधानीसे इस तरह लेटना चाहिए कि किसी दूसरेसे अंग स्पर्श न हो। आवश्यकता होने पर साधु सुई, उस्तरा, नखच्छेदनी तथा कान सलाईका भी उपयोग करता है किन्तु छाता जूता वजित है।
भिक्षा और भोजन
साधुको सूर्योदयसे तीन घड़ीके पश्चात् और सूर्यास्तसे तीन घड़ी पहले भोजन कर लेना चाहिए। छियालीस दोष रहित और नवकोटिसे विशुद्ध आहार ही ग्राह्य होता है । कहा है
वकोडिपरिसुद्धं असणं बादालदोसपरिहीणं ।
संजोयणाय होणं पमाणसहियं विहिसुदिणं ॥-मूलाचार ६।६३ ॥ श्वे. साधु भी भिक्षाके उचित समय पर भिक्षाके लिए जाता है । वह साथमें किसी श्रावक वगैरहको नहीं रखता और चार हाथ आगे देखकर सावधानता पूर्वक जाता है। यदि मूसलाधार वृष्टि होती हो, गहरा कोहरा छाया हो, जोरकी आँधी हो, हवामें जन्तुओंका बाहुल्य हो तो साधुको भिक्षाके लिए जाने का निषेध है। उसे ऐसे समयमें भी नहीं जाना चाहिए जब भोजन तैयार न हो या भोजनका समय बीत चुका हो । उसे ऐसे मागसे जाना चाहिए जिसपर कीचड़, जीवजन्तु, जंगली जानवर, गढ़े, नाला, पुल, गोबर वगैरह न हो। वेश्यावाट, अधिकारियोंके निवास, तथा राजप्रासाद वजित है। उसे अपना भिक्षा भ्रमण प्रारम्भ करने से पहले अपने सम्बन्धियों के घर नहीं जाना चाहिए। इससे स्पेशल भोजनकी व्यवस्था हो सकती है। यदि घरका द्वार बन्द हो तो उसे न तो खोलना चाहिए और न उसमें से झांकना चाहिए ।
सूत्रकृतांगसूत्र में यद्यपि भोजनके छियालीस दोषोंका निर्देश है किन्तु किसी भी अंग या मल सूत्र में उनका ब्योरेवार एकत्र वर्णन नहीं मिलता जैसा मूलाचार में मिलता है।
भिक्षा लेकर लौटने पर उसे गुरुको दिखाना चाहिए और पूछना चाहिए कि किसीको भोजनकी आवश्यकता है क्या। हो तो उसे देकर शेष स्वयं खा लेना चाहिए। यदि साधुको भूख लगी हो तो एकान्त स्थानमें किसी दीवारकी ओटमें स्थानके स्वामीसे आज्ञा लेकर भोजन कर सकता है। यदि एक बार घूमने पर पर्याप्त भोजन न मिले तो दूसरा चक्कर लगा सकता है ।
साधुके लिए भोजनका परिमाण बत्तीस ग्रास कहा है। और ग्रासका परिमाण मुर्गीके अण्डेके बराबर कहा है। साधुको अपने उदरका आधा भाग अन्नसे, चतुर्थ भाग जलसे और चतुर्थ भाग वायुसे भरना चाहिए। अर्थात् भूखसे आधा खाना चाहिए ।
श्वे. साधु गृहस्थके पात्रका उपयोग नहीं कर सकता। उसे अपने भिक्षा पात्र में ही भोजन लेना चाहिए। जब भोजन करे तो भोजनको स्वादिष्ट बनाने के लिए विविध व्यंजनोंको मिलानेका प्रयत्न न करे । और न केवल स्वादिष्ट भोजन ही ग्रहण करे । उसे किसी विशेष भोजनका इच्छुक भी नहीं होना चाहिए ।
इस तरह पाणि भोजन और पात्र भोजनके सिवाय दोनों परम्पराओंमें भोजनके अन्य नियमोंमें विशेष अन्तर नहीं है। नवकोटि परिशुद्ध, दस दोष रहित और उद्गम उत्पादन एषणा परिशुद्ध भोजन ही जैन साधुके लिए ग्राह्य कहा है।
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