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धर्मामृत ( अनगार) लोकेऽपि
णमह परमेसरं तं कप्पते पाविऊण रविबिम्बं ।
णिव्वाणजणयछिदं जेण कयं छारछाणणयं ॥ [ ] पृणति -प्रीणयति, पृण प्रीणने तुदादिः ॥६५॥ अथ पुण्यमपि सकलकल्याणनिर्माण सम्यक्त्वानुग्रहादेव समर्थ भवतीति प्रतिपादयितुमाहवृक्षाः कण्टकिनोऽपि कल्पतरवो ग्रावापि चिन्तामणिः.
पुण्याद् गौरपि कामधेनुरथवा तन्नास्ति नाभून्न वा। भाव्यं भव्यमिहाङ्गिनां मृगयते यज्जातु तद्भू कुटिं,
सम्यग्दर्शनवेधसो यदि पदच्छायामुपाच्छन्ति ते ॥६६॥ ग्रावा-सामान्यपाषाणः । भाव्यं-भविष्यति । भव्यं-कल्याणम् । तद्भृकुटिं-पुण्यभ्रुकूटिं । इयमत्र भावना-ये सम्यग्दर्शनमाराधयन्ति तेषां तादशपुण्यमास्रवति येन त्रैकाल्ये त्रैलोक्येऽपि ये तीर्थकरत्वपद१२ पर्यन्ता अभ्युदयास्ते संपाद्यन्ते । भ्रूकुटिवचनमत्रे लक्षयति यो महाप्रभुस्तदाज्ञां योऽतिक्रामति स तं प्रति क्रोधाद्
भृकुटिमारचयति । न च सम्यक्त्वसहचारिपुण्यं केनापि संपादयितुमारब्धेनाभ्युदयेन लधेत सर्वोऽप्यभ्युदयस्तदुदयानन्तरमेव संपद्यत इत्यर्थः । पदच्छायां-प्रतिष्ठा सम्पदाश्रयं च ॥६६॥
संन्यासविधिमें कहा भी है
द्विजको संन्यास लेते देखकर सूर्य अपने स्थानसे मानो यह जानकर चलता है कि यह मेरे मण्डलका भेदन करके परमब्रह्मको प्राप्त हुआ जाता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन सूर्यके समान है ॥६५॥
पुण्य भी सम्पूर्ण कल्याणको करने में सम्यक्त्वके अनुग्रहसे ही समर्थ होता है, यह कहते हैं
यदि वे प्राणी सम्यग्दर्शनरूपी ब्रह्माके चरणोंका आश्रय लेते हैं तो पुण्यके उदयसे बबूल आदि काँटेवाले वृक्ष भी कल्पवृक्ष हो जाते हैं, सामान्य पाषाण भी चिन्तामणिरत्न हो जाता है। साधारण गाय भी कामधेनु हो जाती है। अथवा इस लोक में प्राणियोंका ऐसा कोई कल्याण न हुआ, न है, न होगा जो कभी भी पुण्यकी भ्रुकुटिकी अपेक्षा करे ॥६६।।
विशेषार्थ-इसका आशय है कि जो सम्यग्दर्शनकी आराधना करते हैं उनका ऐसा पुण्योदय होता है जिससे तीनों कालों और तीनों लोकोंमें भी तीर्थंकरपदपर्यन्त जितने अभ्युदय हैं वे सब प्राप्त होते हैं। 'भृकुटि' शब्द बतलाता है कि जो अपने महान् स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन करता है उसके प्रति उसका स्वामी क्रोधसे भौं चढाता है। किन्त सम्यक्त्वके सहचारी पुण्यकी आज्ञाका उल्लंघन कोई भी अभ्युदय नहीं कर सकता । सम्यक्त्वके सहचारी पुण्यका उदय होते ही सब अभ्युदय स्वतः प्राप्त होते हैं। सम्यग्दर्शनको ब्रह्माकी उपमा दी है क्योंकि वह सर्व पुरुषार्थोंके निर्माणमें समर्थ है। इसीसे शास्त्रोंमें सम्यग्दृष्टिके पुण्यको मोक्षका भी कारण कहा है। इसके यथार्थ आशयको न समझनेवाले सम्यग्दर्शनके माहात्म्यको भुलाकर केवल पुण्यके ही माहात्म्यको गाने लगते हैं। इससे नम पैदा होता है। पुण्य तो कर्मबन्धन है और बन्धन मोक्षका कारण नहीं हो सकता । यह बन्धन सम्यग्दर्शनसे नहीं होता किन्तु सम्यक्त्वके साथ रहनेवाले शुभरागसे होता है। सम्यग्दर्शन तो उसका निवारक होता है ॥६६॥
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