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________________ द्वितीय अध्याय १६१ यो रागादिरिपून्निरस्य दुरसान्निर्दोषमुद्यन् रथं संवेगच्छलमास्थितो विकचयन् विष्वकृपाम्भोजिनीम् । व्यक्तास्तिक्यपथस्त्रिलोकमाहितः पन्थाः शिवश्रीजुषा ___ माराद्धृन्पणतीप्सितैः स जयतात् सम्यक्त्वतिग्मद्युतिः ॥६५॥ रागादिरिपून्-सप्त मिथ्यात्वादीन् षष्टिकोटिसहस्रसंख्यान्मंदेहराक्षसाः ते हि सन्ध्यात्रयेऽपि सूर्य प्रतिबघ्नन्ति । निरस्य-उदयतः स्वरूपतो वा काललब्ध्यादिना व्युत्छेद्य, पक्षे ब्राह्मणनिपात्य । मंदेहा हि ६ सन्ध्योपासनानन्तरदत्तार्धांजलिजलबिन्दुवज्रस्त्रिसन्ध्याकुलद्विजैनिपात्यन्ते । दुरसान्–दुनिवारान् । निर्दोषं-- निःशङ्कादिमलम् । दोषेति रात्रेरभावेन च । विकचयन्--विकासयन् । विष्वक्-सर्वभूतेषु सर्वभूतले च । शिवश्रीजषां--अनन्तज्ञानादिलक्षणां मोक्षलक्ष्मी प्रीत्या सेवितुमिच्छताम् । पक्षे मोक्षस्थानं गच्छताम् । ९ सिद्धा हि सूर्यमण्डलं भित्वा यान्तीति केचित् । तथा चोक्तं संन्यासविधौ 'संन्यसन्तं द्विजं दृष्ट्वा स्थानाच्चलति भास्करः। एष मे मण्डलं भित्त्वा परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ [ ] जो दुर्निवार रागादि शत्रुओंका विनाश करके ऊपरको उठते हुए संवेगरूपी रथपर आरूढ होकर सर्वत्र दयारूपी कमलिनीका विकास करता हुआ, आस्तिक्यरूपी मार्गको प्रकट करता है, तीनों लोकोंमें पूजा जाता है, मोक्षरूपी लक्ष्मीका प्रेमपूर्वक सेवन करनेके इच्छुकोंको उसकी प्राप्तिका उपाय है, तथा जो आराधकोंको इच्छित पदार्थोंसे सन्तुष्ट करता है वह सम्यक्त्वरूपी सूर्य जयवन्त हो, अपने समस्त उत्कर्षके साथ शोभित हो ॥६५।।। विशेषार्थ यहाँ सम्यग्दर्शनको सूर्यको उपमा दी है, सूर्य भूखसे पीड़ित जनोंका सर्वोत्कृष्ट आराध्य है तो सम्यग्दर्शन मुमुक्षु जनोंका परम आराध्य है। सम्यग्दर्शनको दुनिवार मिथ्यात्व आदि सात कर्मशत्रु घेरे रहते हैं तो हिन्दू मान्यताके अनुसार तीनों सन्ध्याओंमें सूर्यको साठ कोटि हजार राक्षस घेरे रहते हैं। काललब्धि आदिके द्वारा सम्यग्दर्शनसे उन कर्म शत्रुओंका विनाश होता है तो ब्राह्मणोंके द्वारा किये जानेवाले सन्ध्यावन्दनके अन्तमें दी जानेवाली अर्धाञ्जलिके जलबिन्दुरूपी वज्रसे सूर्य उन राक्षसोंको मार गिराता है । तब सूर्य रथमें सवार होकर समस्त भूतल पर कमलिनियोंको विकसित करता है तो सम्यग्दर्शन भी आगे बढ़कर वैराग्यरूपी रथपर सवार हो समस्त प्राणियों में दयाको विकसित करता है। रथ आकाशको लाँघता है तो संवेगसे शेष संसार सुखपूर्वक लाँघा जाता है । अतः संवेगको रथकी उपमा दी है। सूर्य दोषा अर्थात् रात्रिका अभाव होनेसे निर्दोष है तो सम्यग्दर्शन शंकादि दोषोंसे रहित होनेसे निर्दोष है । सूर्य मार्गको आलोकित करता है तो सम्यग्दर्शन आस्तिक्य भावको प्रकट करता है। आस्तिक्यको मार्गकी उपमा दी वह मागेकी तरह इष्ट स्थानकी प्राप्तिका हेतु है । सम्यग्दर्शन भी त्रिलोक-पज्य है और सूर्य भी। सम्यग्दर्शन भी मोक्षकी प्राप्तिका पथ-उपाय है और सूर्य भी मोक्षस्थानमें जानेवालों के लिए पथ है क्योंकि किन्हींका मत है कि मुक्त जीव सूर्य-मण्डलका भेदन करके जाते हैं। १. त्रिसन्ध्यं किल द्विजै-भ. कु.च.। २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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