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धर्मामृत (अनगार )
'रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते वितथम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ॥'
गन्धः - लेशः ॥२०॥
अथ रागाद्युपहतानामाप्ततां प्रतिक्षिपति
ये रागादिजिताः किचिज्जानन्ति जनयन्त्यपि । संसार वासनां तेऽपि यद्याप्ताः कि ठकैः कृतम् ॥२१॥
किं ठकैः कृतं येन तेऽप्याप्तत्वेन न प्रतिपद्यन्त इति सामर्थ्याद् गम्यते ॥२१॥
अथ आताभासानामुपेक्षणीयतोपायमुपदिशति
विशेषार्थ - जो राग आदिको जीत लेता है उसे जिन कहते हैं । अतः रागादिके जेता जिनके वचनों में मिथ्यापना होना सम्भव नहीं है । ऐसी दशा में उनके वचनों में युक्तिसे बाधा आ नहीं सकती। हाँ, जहाँ रागादि होते हैं वहाँ वचन मिथ्या होते ही हैं । कहा भी है
'राग से, अथवा द्वेष से, अथवा मोहसे झूठा वचन कहा जाता है । जिसमें ये दोष नहीं हैं उसके झूठ बोलनेका कोई कारण नहीं है
[ आप्तस्वरूप ४]
जरा आदि ग्रस्त हैं उनकी आप्तताका निषेध करते हैं
जो राग-द्वेष-मोहसे अभिभूत होते हुए थोड़ा-सा ज्ञान रखते हैं तथा संसारकी वासनाको — स्त्री- पुत्रादिकी चाहके संस्कारको पैदा करते हैं, वे भी यदि यथार्थ वक्ता माने. जाते हैं तो ठगोंने ही क्या अपराध किया है, उन्हें भी आप्त मानना चाहिए ||२१||
विशेषार्थ - प्रन्थकारने अपनी टीकामें ठकका अर्थ खारपट किया है । आचार्य अमृतचन्द्रने इन खारपटिकों का मत इस प्रकार कहा है
'थोड़े-से धनके लोभ से शिष्यों में विश्वास पैदा करनेके लिए दिखलानेवाले खारपटिकों के तत्काल घड़े में बन्द चिड़ियाके मोक्षकी तरह मोक्षका श्रद्धान नहीं करना चाहिए।' इस कथनसे ऐसा ज्ञात होता है कि खारपटिक लोग थोड़े-से भी धनके लोभसे मोक्षकी आशा दिलाकर उसे मार डालते थे | और वे अपने शिष्यों में विश्वास उत्पन्न करनेके लिए अपने इस मोक्षका प्रदर्शन भी करते थे । जैसे घड़े में चिड़िया बन्द है वैसे ही शरीर में आत्मा बन्द है । और जैसे घड़े को फोड़नेपर चिड़िया मुक्त हो जाती है वैसे ही शरीरको नष्ट कर देने पर आत्मा मुक्त हो जाती है। ऐसा उनका मत प्रतीत होता है । ऐसे ठगोंसे सावधान रहना चाहिए । धर्ममार्ग में भी ठगीका व्यापार चलता है ॥२१॥
आप्ताभासोंकी उपेक्षा करनेका उपदेश देते हैं
१. धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् । झटिति घटचटकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानाम् ॥
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- पुरुषार्थ, श्लो. ८८ ।
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