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________________ द्वितीय अध्याय स्वरूपम् । स्ववधाय-आत्मनो विपरीताभिनिवेशलक्षणपरिणमनेनोपघातार्थम् । कलि:-एतेन कलिकाले श्वेतपटमतमुदभूदिति ज्ञापितं स्यात् । यद् वृद्धाः 'छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरटे उप्पण्णो सेवडसंघो य वलहीए॥ [ भावसंग्रह गा. १३७ ] लोकविवेकं-व्यवहर्तृजनानां युक्तायुक्तविचारम् ॥८॥ अथाज्ञानमिथ्यादृशां दुर्ललितान्यनुशोचति युक्तावनाश्वास्य निरस्य चाप्तं भूतार्थमज्ञानतमोनिमग्नाः । जनानुपायरतिसंवधानाः पुष्णन्ति ही स्वव्यसनानि धूर्ताः ॥९॥ युक्तौ-सर्वज्ञोऽस्ति सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् इत्यादि प्रमाणव्यवस्थायाम्। ९ भूतार्थ-वास्तवम् । तदुक्तम् "अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु। देवो ण अत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए ॥" [ भावसंग्रह गा. १६४ ] उपाय:-तदभिप्रायानुप्रवेशोपक्रमः । तथा चोक्तम् "दृष्टान्ताः सन्त्यसंख्येया मतिस्तद्वशवर्तिनी। किन्न कुर्युर्महीं धूर्ता विवेकरहितामिमाम् ॥" [सोम. उपा., १४१ श्लो.] अतिसंदधानाः-वञ्चयमानाः ।।९।। विशेषार्थ-भगवान् महावीर स्वामीके पश्चात् उनके अनुयायी दो भागों में विभाजित हो गये-श्वेताम्बर और दिगम्बर। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के साध श्वेत वस्त्र पहनते हैं. स्त्रीकी मुक्ति मानते हैं और मानते हैं कि केवली अर्हन्त अवस्थामें भी ग्रासाहार करते हैं। दिगम्बर इन बातोंको स्वीकार नहीं करते। दिगम्बर अभिलेखोंके अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्यके समयमें बारह वर्षका दुर्भिक्ष पड़नेपर श्रुतकेवली भद्रबाहु, जो उस समय भगवान् महावीरके सर्वसंघके एकमात्र प्रधान थे, अपने संघको लेकर दक्षिणापथकी ओर चले गये। वहीं श्रमण बेलगोलामें उनका स्वर्गवास हो गया। जो साधु दक्षिण नहीं गये उन्हें उत्तरभारतमें दुर्भिक्षके कारण वस्त्रादि धारण करना पड़ा। दुर्भिक्ष बीतनेपर भी उन्होंने उसे छोड़ा नहीं । फलतः संघभेद हो गया। उसीको लेकर कलिकालको उनका सहायक कहा गया है क्योंकि पंचमकालमें ही संघभेद हुआ था। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रीमुक्ति आदिके विषयमें संशयशील नहीं है। इसीसे आचार्य पूज्यपादने श्वेताम्बर मान्यताओंको विपरीत मिथ्यादर्शन बतलाया है। हाँ, एक यापनीय संघ भी था जो स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्तिको तो मानता था किन्तु दिगम्बरत्वका पोषक था। दोनों बातोंको अंगीकार करनेसे उसे संशय मिथ्यादृष्टि कहा जा सकता है। संशय मिथ्यात्वको शरीरमें घुसे हुए काँटेकी उपमा दी है। जैसे पैरमें घुसा हुआ काँटा सदा करकता है वैसे ही संशयमें पड़ा हुआ व्यक्ति भी किसी निर्णयपर न पहुँचनेके कारण सदा ढुलमुल रहता है ।।८।। आगे अज्ञान मिथ्यादृष्टियोंके दुष्कृत्योंपर खेद प्रकट करते हैं बड़ा खेद है कि अज्ञानरूपी अन्धकारमें डूबे हुए और अनेक उपायोंसे लोगोंको ठगनेवाले धूर्तजन परमार्थ सत् सर्वज्ञका खण्डन करके और युक्तिपर विश्वास न करके अपने इच्छित दुराचारोंका ही पोषण करते हैं ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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