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________________ १२ धर्मामृत ( अनगार) अथ विपर्यासमिथ्यात्वपरिहारे प्रेरयति येन प्रमाणतः क्षिप्तां श्रद्दधानाः श्रुति रसात् । चरन्ति श्रेयसे हिंसां स हिंस्यो मोहराक्षसः ॥७॥ प्रमाणतः-अनाप्तप्रणीतत्व-पशुवधप्रधानत्वादिबलेन । श्रुति-वेदम् । रसात्-आनन्दमाश्रित्य । श्रेयसे--स्वर्गादिसाधनपुण्यार्थम् । तदुक्तम् 'मण्णइ जलेण सुद्धि तित्ति मंसेण पियरवग्गाणं । पसुकयवहेण संग्गं धम्म गोजोणिफासेण ॥[भावसंग्रह गा. ५] मोहः-विपरीतमिथ्यात्वनिमित्तं कर्म ॥७॥ अथ संशयमिथ्यादृष्टेः कलिकालसहायकमाविष्करोति अन्तस्खलच्छल्यमिव प्रविष्टं रूपं स्वमेव स्ववधाय येषाम् । तेषां हि भाग्यः कलिरेष नूनं तपत्यलं लोकविवेकमश्नन् ॥८॥ शल्यं-काण्डादि । रूपं-कि केवली कवलाहारी उदश्विदन्यथा इत्यादिदोलायितप्रतीतिलक्षणमात्म विशेषार्थ-पहले शैवोंको विनय मिथ्यादृष्टि कहा था । शैव केवल शिवपूजासे ही मोक्ष मानते हैं। स्वयं लाये हुए बेलपत्रोंसे पूजन, जलदान, प्रदक्षिणा, आत्मविडम्बना, ये उनकी शिवोपासनाके अंग हैं। शैव सम्प्रदायके अन्तर्गत अनेक पन्थ रहे हैं। मुख्य भेद हैं दक्षिणमार्ग और वाममार्ग। वाममार्ग शैवधर्मका विकृत रूप है। उसीमें मद्य, मांस, मदिरा, मैथुन और मुद्राके सेवनका विधान है ॥६॥ आगे विपरीत मिथ्यात्वको छोड़नेकी प्रेरणा करते हैं जिसके कारण वेदपर श्रद्धा करनेवाले मीमांसक प्रमाणसे तिरस्कृत हिंसाको स्वर्ग आदिके साधन पुण्यके लिए आनन्दपूर्वक करते हैं उस मोहरूपी राक्षसको मार डालना चाहिए ॥७॥ विशेषार्थ-वेदके प्रामाण्यको स्वीकार करनेवाला मीमांसक दर्शन वेदविहित हिंसाको बड़ी श्रद्धा और हर्षके साथ करता था। उसका विश्वास था कि यज्ञमें पशुबलि करनेसे पुण्य होता है और उससे स्वर्गकी प्राप्ति होती है । 'स्वर्गकामो यजेत्' स्वर्गके इच्छुकको यज्ञ करना चाहिए यह श्रुति है। बौद्धों और जैनोंने इस वैदिकी हिंसाका घोर विरोध किया। फलतः यज्ञ ही बन्द हो गये । अकलंक देवने तत्त्वार्थवार्तिक (८।१) में लिखा है, वैदिक ऋषि अज्ञानी थे क्योंकि उन्होंने हिंसाको धर्मका साधन माना। हिंसा तो पापका ही साधन हो सकती है, धर्मका साधन नहीं। यदि हिंसाको धर्मका साधन माना जाये तो मछलीमार, चिड़ीमारोंको भी धर्म प्राप्ति होनी चाहिए। यज्ञकी हिंसाके सिवाय दूसरी हिंसा पापका कारण है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि दोनों हिंसाओंमें प्राणिवध समान रूपसे होता है, इत्यादि । अतः जिस मिथ्यात्व मोहनीयके कारण ऐसी विपरीत मति होती है उसे ही समाप्त कर देना चाहिए ॥७॥ ____ आगे कहते हैं कि संशय मिथ्यादृष्टिकी कलिकाल सहायता करता है जिनका अपना ही रूप शरीरमें प्रविष्ट हुए चंचल काँटेकी तरह अपना घात करता है उन श्वेताम्बरोंके भाग्यसे ही लोगोंके विवेकको नष्ट करनेवाला कलिकाल पूरी तरहसे तपता है-अपने प्रभावको फैलाये हुए है । यह हम निश्चित रूपसे मानते हैं ।।८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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