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________________ ८८ धर्मामृत (अनगार) मस्करिपूरणनामा पार्श्वनाथतीर्थोत्पन्न ऋषिः स सद्योजातकेवलज्ञानाद् वीरजिनाद् ध्वनिच्छन् -(ध्वनिमिच्छन् ) तत्राजातध्वनौ मय्येकादशाङ्गधारिण्यपि नास्य ध्वनिनिर्गमोऽभूत् स्वे शिष्ये तु गोतमे ३ सोऽभूदिति मत्सराद् विकल्पे नायं सर्वज्ञ इति ततोऽपसृत्य 'अज्ञानान्मोक्षः' इति मतं प्रकाशितवान् ॥४॥ ग्रन्थकारने एकान्त मिथ्यात्वका प्रणेता बौद्धको, विनय मिथ्यात्वका पुरस्कर्ता शैवको, विपरीत मिथ्यात्वका द्विजोंको, संशय मिथ्यात्वका श्वेताम्बरोंको और अज्ञान मिथ्यात्वका मस्करीको कहा है । गोमट्टसार जीवकाण्डमें भी कहा है 'बौद्धदर्शन एकान्तवादी है, ब्रह्म विपरीतमिथ्यात्वी है, तापस विनयमिथ्यात्वी हैं। इन्द्र संशयमिथ्वात्वी है और मस्करी अज्ञानी है।' ___ दर्शनसारमें देवसेनने प्रत्येकका विवरण देते हुए लिखा है-भगवान् पाश्र्वनाथके तीर्थ में पिहिताश्रव मुनिका शिष्य बुद्धिकीर्ति मुनि हुआ। उसने रक्ताम्बर धारण कर एकान्तमतकी प्रवृत्ति की। उसने मांसभक्षणका उपदेश दिया और कहा कर्ता अन्य है, भोक्ता अन्य है । यह बुद्धिकीर्ति, बौद्धधर्मके संस्थापक बुद्ध हैं उन्होंने क्षणिकवादी बौद्धदर्शनकी स्थापना की। उन्होंने स्वयं यह स्वीकार किया है कि एक समय मैं नंगा रहता था, केशलोंच करता था, हाथमें खाता था आदि । यह सब दिगम्बर जैन साधुकी चर्या है। अतः उन्होंने अवश्य ही किसी जैन साधुसे दीक्षा ली होगी। जब उन्होंने घर छोड़ा तब भगवान् पार्श्वनाथका तीर्थ चलता था। भगवान् महावीरने तीर्थप्रवर्तन तबतक नहीं किया था। अतः दर्शनसारके कथनमें तथ्य अवश्य है। विपरीत मतकी उत्पत्तिके सम्बन्ध में लिखा है कि मुनिसुव्रतनाथके तीर्थमें क्षीरकदम्ब नामक सम्यग्दृष्टि उपाध्याय था। उसका पुत्र पर्वत बड़ा दुष्ट था। उसने विपरीत मतका प्रवर्तन किया। जैन कथानकोंमें नारद पर्वतके शास्त्रार्थकी कथा आती है। 'अजैर्यष्टव्यम्' इस श्रुतिमें अजका अर्थ बकरा पर्वतने बतलाया और राजा वसुने उसका समर्थन किया। इस तरह वैदिक हिंसाका सूत्रपात हुआ। पर्वत ब्राह्मण था। अतः द्विज या बह्म शब्दसे उसीको विपरीत मिथ्यात्वका प्रवर्तक कहा है। विनय मिथ्यात्वके सम्बन्धमें कहा है कि सभी तीर्थों में वैनयिक होते हैं उनमें कोई जटाधारी, कोई सिर मुंड़ाये, कोई शिखाधारी और कोई नग्न होते हैं। दुष्ट या गुणवान् हों भक्तिपूर्वक सबको साष्टांग नमस्कार करना चाहिए ऐसा उन मूढों ने माना। जीवकाण्डमें तापसको और आशाधरजीने शैवोंको वैनयिक कहा है। दर्शनसार में जो कहा है वह दोनोंमें घटित होता है। आशाधरजीने श्वेताम्बरों को संशय मिथ्यादृष्टि कहा है। दर्शनसारमें भी श्वेताम्बर मतकी उत्पत्ति बतलाकर उन्हें संशय मिथ्यादृष्टि कहा है। किन्तु आचार्य पूज्यपादने उन्हें विपरीत मिथ्यादृष्टि कहा है क्योंकि वे परिग्रहीको निर्ग्रन्थ कहते हैं। अतः विपरीत कथन करनेसे विपरीत मिथ्यादृष्टि ही हुए। मस्करीको अज्ञान मिथ्यादृष्टि कहा है। इसके सम्बन्धमें दर्शनसारमें कहा है-श्री वीर भगवान्के तीर्थमें पार्श्वनाथ तीर्थंकरके संघके गणीका शिष्य मस्करी पूरण नामका साधु था उसने अज्ञानका उपदेश दिया। अज्ञानसे मोक्ष होता है, जीवका पुनर्जन्म नहीं है आदि। भगवान् महावीरके समयमें बुद्धकी ही तरह पूरण और मक्खलि गोशालक नामके दो शास्ता थे। मक्खलि तो नियतिवादीके रूपमें प्रख्यात है। श्वेताम्बर आगमोंके अनुसार वह महावीरका शिष्य भी रहा किन्तु उनके विरुद्ध हो गया । आशाधरजीने अपनी टीकामें लिखा है-मस्करी अर्थात् पार्श्वनाथके तीर्थ में उत्पन्न हुआ मस्करीपुरण नामक ऋषि । भगवान् महावीरको केवलज्ञान होनेपर भी दिव्यध्वनि नहीं खिरी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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