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द्वितीय अध्याय अथ मिथ्यात्वस्य विकल्पान् तत्प्रणेतृमुखेन लक्षयति
'बौद्ध-शैव-द्विज-श्वेतपट-मस्करिपूर्वकाः।
एकान्त-विनय-भ्रान्ति-संशयाज्ञानदुर्दशः ॥४॥ भ्रान्ति:-विपर्ययः । तदुक्तम्
'मिथ्योदयेन मिथ्यात्वं तत्त्वाश्रद्धानमङ्गिनाम् । एकान्तं संशयो मौढ्यं विपर्यासो विनीतता ॥' बौद्धादिः सितवस्त्रादिमस्करी विप्रतापसौ।
मिथ्यात्वे पञ्चधा भिन्ने प्रभवः प्रभवन्त्यमी ॥ [ मिथ्यात्वके भेद उनके पुरस्कर्ताओंके साथ बतलाते हैं
बौद्ध एकान्त मिथ्यादृष्टि हैं । शैव विनय मिथ्यादृष्टि हैं। द्विज विपरीत मिथ्यादृष्टि है, श्वेताम्बर संशय मिथ्यादृष्टि हैं और मस्करी अज्ञान मिथ्यादृष्टि हैं।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वके पाँच भेद हैं-एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान । पाँच भेदकी परम्परा प्राचीन है । आचार्य पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धि (१।१) में मिथ्यात्वके भेदोंका कथन दो प्रकारसे किया है-'मिथ्यादर्शनके दो भेद हैं नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । परोपदेशके बिना मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जो तत्त्वार्थका अश्रद्धान होता है वह नैसगिक मिथ्यात्व है । परोपदेशके निमित्तसे होनेवाला मिथ्यात्व चार प्रकारका है-क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक । अथवा मिथ्यात्वके पाँच भेद हैं-एकान्त मिथ्यादर्शन, विपरीत मिथ्यादर्शन, संशय मिथ्यादर्शन, वेनयिक मिथ्यादर्शन, अज्ञान मिथ्यादर्शन । यही है, ऐसा ही है इस प्रकार धर्मी और धर्मके विषय में अभिप्राय एकान्त है। यह सब पुरुष-ब्रह्म ही है अथवा नित्य ही है यह एकान्त है । परिग्रहीको निर्ग्रन्थ मानना, केवलीको कवलाहारी मानना, स्त्रीकी मुक्ति मानना आदि विपर्यय है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्षके मार्ग हैं या नहीं, इस तरह किसी भी पक्षको स्वीकार न करके डाँवाडोल रहना संशय है। सब देवताओंको और सब धर्मोको समान मानना वैनयिक है । हित
और अहितकी परीक्षाका अभाव अज्ञान है।' अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक (८1१) में पूज्यपादके ही कथनको दोहराया है। प्राकृत पंचसंग्रहके जीवसमास प्रकरणमें (गा०७) तथा भगवती आराधना (गा० ५६) में मिथ्यात्वके तीन भेद किये हैं-संशयित, अभिगृहीत, अनभिगृहीत । आचार्य जटासिंहनन्दिने अपने वरांगचरित [१।४] में मिथ्यात्वके सात भेद किये हैं-ऐकान्तिक, सांशयिक, मूढ, स्वाभाविक, वैनयिक, व्युग्राहित और विपरीत | आचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारके द्वितीय अध्यायके आदिमें वरांगचरितका ही अनुसरण किया है । श्वेताम्बर परम्परामें स्थानांग सूत्र ( ३ ठा.) में मिथ्यात्वके तीन भेद किये हैं-अक्रिया, अविनय, अज्ञान । तत्त्वार्थ भाष्यमें दो भेद किये हैं-अभिगृहीत, अनभिगृहीत । टीकाकार सिद्धसेन गणिने 'च' शब्दसे सन्दिग्ध भी ले लिया है। धर्मसंग्रहमें पाँच भेद किये हैं-आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, सांशयिक, अनाभोगिक । प्रायः नामभेद है, लक्षणभेद नहीं है । १. एयंतबुद्धदरसी विवरीयो ब्रह्म तावसो विणओ । इदो विय संसइओ मक्कणिओ चेव अण्णाणी ।।
....... --गो. जी..१६ गा.
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