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द्वितीय अध्याय
तबलात्-अनाद्यनुबद्धमिथ्यात्वसामर्थ्यात् । भव्यः खल अनादिमिथ्यादष्टिः कालादिलब्ध्याऽन्तमहर्तमीपशमिकसम्यक्त्वमनुगम्य पुनस्ततः प्रच्युत्य नियमेन मिथ्यात्वमाविशति । तदुक्तम्
'निशीथं वासरस्येव निर्मलस्य मलीमसम् ।
पश्चादायाति मिथ्यात्वं सम्यक्त्वस्यास्य निश्चितम् ॥' [ अमित. श्रा. २।४२ ] तदपक्षेपात्-तथाविधाच्च तमसः प्रध्वंसात् । अविद्याच्छिदा-अविद्यां कुमतिकुश्रुतविभङ्गस्वभावं मोह-संशय-विपर्ययरूपं वा अज्ञानत्रयं छिनत्ति सम्यग्मत्यादिरूपतां प्रापयतीत्यविद्याछित् तेन । सिद्धयैस्वात्मोपलब्धये आत्मोत्कर्षपरापकर्षसाधनार्थं च । कस्यचित्-आसन्नभव्य (स्य) जिगीषोश्च । स्वमहसासम्यग्दर्शनलक्षणेन प्रतापरूपेण च निजतेजसा ॥१॥
विशेषार्थ-संसारी जीव अनादिकालसे मिथ्यात्वके कारण अपने स्वरूपको न जानकर नाना गतियोंमें भटकता फिरता है। यह मिथ्यात्व भाव और द्रव्यके भेदसे दो प्रकारका है। जीवके जो मिथ्यात्वरूप भाव हैं वह भाव मिथ्यात्व है, और जो दर्शन मोहनीय कर्मका भेद मिथ्यात्व मोहनीय है उस रूप परिणत पौद्गलिक कर्म द्रव्य मिथ्यात्व है । द्रव्य मिथ्यात्वके उदयमें भाव मिथ्यात्व होता है अतः भाव मिथ्यात्व द्रव्य मिथ्यात्वका अनुगामी है। तथा मिथ्यात्वके उदयमें ही नवीन मिथ्यात्व कर्मका बन्ध होता है। इस तरह इसकी परम्परा चलती आती है । जब पाँच लब्धियोंका लाभ होता है तब भव्य पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवको एक अन्तर्मुहूर्त के लिए सम्यग्दर्शनका लाभ होता है। जब जीवके संसार परिभ्रमणका काल अर्धपुद्गल परावर्त शेष रहता है तब वह प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके योग्य होता है इसे काललब्धि कहते हैं। उसे सद्गुरुके द्वारा तत्त्वोंका उपदेश मिलना देशनालब्धि और विशुद्ध परिणाम होना विशुद्धिलब्धि है । विशुद्ध परिणाम होनेपर पाप प्रकृतियोंमें स्थिति अनुभाग घटता है, प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग बढ़ता है। इस तरह प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि होते हुए जब कर्मों की स्थिति अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण बाँधता है तब क्रमसे अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामोंको करता है। यह करणलब्धि है। अनिवृत्तिकरणके अन्तर्गत अन्तरकरण करता है। उसमें अनन्तानुबन्धी कषाय और मिथ्यात्वका अपवर्तन करता है उससे मिथ्यात्व कर्म मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृति इन तीन रूप हो जाता है अर्थात प्रथमोपशम सम्यक्त्व रूप परिणामोंसे सत्तामें स्थित मिथ्यात्व कर्मका द्रव्य तीन रूप हो जाता है। तब अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति इन सात प्रकृतियोंका उपशम करके सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। इसकी स्थिति एक अन्तर्मुहूर्तकी होती है अतः पुनः मिथ्यात्वमें चला जाता है। मगर एक बार भी सम्यक्त्वके होनेसे अनन्त संसार सान्त हो जाता है। कहा भी है कि जैसे निर्मल दिनके पीछे अवश्य मलिन रात्रि आती है, वैसे ही इस प्रथमोपशम सम्यक्त्वके पीछे अवश्य मिथ्यात्व आता है। एक बार सम्यक्त्व छूटकर पुनः हो जाता है किन्तु मुक्तिके लिए चारित्रकी अपेक्षा करता है । चारित्रके बिना अकेले सम्यक्त्वसे मुक्तिलाभ नहीं हो सकता ॥१॥
१. सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका कथन विस्तारसे जाननेके लिए षट्खण्डागम पु. ६ के अन्तर्गत सम्यक्त्वोत्पत्ति
चूलिका देखें।
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